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भारी स्कूल बैग छोटे बच्चों के कंधों पर एक बोझ हैं

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Swati Bundela
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हमारे लिये सबसे ज्यादा दुख देने वाली बात होती है जब हम देखते है कि छोटे छोटे बच्चों के कंधे झुके हुये है और वो अपने वजन से भी ज्यादा बड़े बैग लेकर जा रहे है. पुस्तकों को कभी भी बोझ नहीं माना जाता था. फिर भी हमारे देश में आज के वक़्त माता-पिता अपने आप को असहाय मानते है जब बच्चों के कंधों पर बड़े बड़े बैकपैक्स देखने पड़ते है, जो स्कूलों के सामान से भरे होते है.

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पाठ्यपुस्तक, बक्स जिसमें लंच या पेंसिल या ज्योमैट्री सेट होता है, पानी की बोतलें और बहुत सी चीज़े होती है जो बच्चों के कंधों पर भारी तनाव डालती हैं.  इस बात से इनकार नहीं किया जाता है कि यह उनके स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है. अभी तक भारत के दो राज्य महाराष्ट्र और तेलंगाना में नीति है जो यह निर्धारित करती है कि स्कूल बैग का वजन छात्र के शरीर के वजन के दस प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए.



द हिंदू के अनुसार, मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एन. किरुबाकरन ने इस साल 29 मई को केंद्र को निर्देश दिया था कि वह स्कूल के बच्चों द्वारा टांगे जाने वाले बैकपैक्स के लिये नीति तैयार करें. एक वकील द्वारा दायर याचिका का निपटारा करते हुए न्यायाधीश ने देखा था कि "न तो बच्चे वेटलिफ्टर्स हैं और न ही स्कूल बैग कंटेनर लोड करने वाले."
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जवाब में, मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) ने सोमवार को मद्रास उच्च न्यायालय को सूचित किया कि उम्र के अनुपात और बच्चों के औसत वजन के अनुपात में स्कूल बैग के वजन को कम करने के लिए एक मसौदा नीति तैयार करने के लिए एक विशेषज्ञ समूह का गठन किया गया है.

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बच्चों के छोटे छोटे कंधों पर इतना वजन लटकाने के बावजूद स्कूल के अधिकारियों को यह बात चितिंत नही करती है?  न केवल हमारी शिक्षा प्रणाली हमारे बच्चों के दिमाग पर असर डाल रही है बल्कि यह उनकी पीठ को भी नुकसान पहुंचा रही है. इस प्रणाली ने लंबे समय से हमारे बच्चों को उन भारी बैकपैक्स को ढोने के लिये मजबूर कर दिया, वही उनके स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव को नजरअंदाज किया जा रहा है. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि बच्चे स्कूल से वापस थकान से चूर आते है. इसके अलावा स्कूल की अलग अलग किताबें जिसमें क्लासवर्क, होमवर्क और रफ वर्क के लिये अलग पुस्तकें होती है. मैंने माध्यमिक विद्यालय में देखे है कि बच्चें हर स्कूल में हर विषय को लेकर तीन नोटबुक लाते हैं.



कुछ बातें
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भारत में, माता-पिता को अपने बच्चों के कंधे पर विशाल बैकपैक्स को असहाय रूप से देखना होता है, जो स्कूल के सामानों से भरे होते है. हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी रही कि लंबे समय से बच्चों को भारी बैकपैक्स उठाने पड़ रहे है जिसका असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ रहा है.



प्रत्येक गुजरने वाले दिन, महीने और वर्ष के साथ, हमारी शिक्षा प्रणाली अधिक से अधिक बच्चों पर यह भार डाल रही है.
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2012 में बीबीसी ने आक्राइव ऑफ डिज़िइज़ के रोग से आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया गया कि "अत्यधिक भारित" बैकपैक स्कूल के बच्चों के बीच पीठ दर्द का कारण बन रहे हैं.



स्कूल के विद्यार्थी जो किशोर अवस्था में है पीठ के दर्द की समस्या का सामना कर रहे है जिन्हें वयस्क जीवन से जुड़ा माना जाता हैं. आखिरकार ये किशोर वयस्क जीवन में जब जायेंगे तो गंभीर बीमारियों का सामना कर रहे होगें. वे किस तरह से पेशेवर कॉलेजों में कई कई घंटे अध्ययन करेंगे या अपने करियर के शुरुआत वर्षों में थकान का मुक़ाबला कर पायेंगे?
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इस प्रकार पैदा होने वाले स्वास्थ्य के मुद्दों का युवा लड़कियों पर दीर्घकालिक असर होगा, जो आख़िर में मां बनेंगी.

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पुराना पीठ दर्द एक नई मां के जीवन का हिस्सा बन गया है. उसे नौ महीने की गर्भावस्था और कई रातें बिना नींद की गुज़ारनी होती है और बाद में अपने बच्चें का भी पालन पोषण करना होता है.



हमारे स्कूल जाने वाले बच्चों के स्वस्थ बचपन और वयस्क जीवन के लिए, हमें तुरंत उनके स्कूल के बैग के वजन को कम करने की आवश्यकता है. प्रत्येक गुजरने वाले दिन, महीने और वर्ष के साथ, हमारी शिक्षा प्रणाली अधिक से अधिक बच्चों को जोखिम में डाल रही है.



हम ईमानदारी से आशा करते हैं कि इस बार, अब और अधिक रुकावट नहीं होगी. एचआरडी मंत्रालय जल्द ही कुछ दिशानिर्देश जारी करेगा, जिससे यह सुनिश्चित होगा कि बच्चों को अपने शरीर के वजन का दस प्रतिशत से अधिक हिस्सा अपनी पीठ पर नहीं उठाना पड़ेगा.
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