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भारत देश में चाहे कितने ही विवाद या असंतोष क्यों न हों, लेकिन देश के सर्वोच्च न्यायालय पर हम सभी को गर्व है। इस न्यायलय से कहीं न कहीं देश की गरिमा जुडी है। चाहे वह देश की सरकार हो या यहां के लोग, सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय पर अमल करना सभी के लिए आवश्यक है। साथ ही यह हम सभी का कर्तव्य भी है।
यह एक जाहिर सी बात है कि जब पूरा देश सर्वोच्च न्यायलय का इतना आदर और सम्मान करता है, तो हम यहां पर पूर्ण इन्साफ और न्याय की उम्मीद भी करेंगे। हालांकि यह देखा जा सकता है कि महिलाओं को हाल ही में इस इंसाफ की प्राप्ति हुई है। अगर सिर्फ महिलाओं की बात की जाये, तो कुछ निर्णय ऐसे हैं जो हमारे न्यायलय को खुद से ही ले लेने चाहिए थे। यह टिप्पड़ी मैं इसलिए कर रही हूं क्यूंकि अगर हम सर्वोच्च न्यायलय द्वारा किसी भी ऐतिहासिक निर्णय का अगर अध्यन करें, तो हम देखेंगे की हर निर्णय के पीछे एक लम्बी कहानी, लोगों की पीड़ा, या कोई न कोई आंदोलन शामिल है।
पिछले ही वर्ष हमारी सर्वोच्च अदालत ने महिलाओं के सन्दर्भ में काफी महत्वपूर्ण निर्णय लिए थे। हमे फक्र है कि यह प्रक्रिया अभी तक ज़ारी है| क्यूंकि हाल ही में न्यायलय ने यह फैसला सुनाया है कि कोई भी पति अपनी पत्नी पर अभद्र टिप्पड़ी करते हुए उसे "प्रॉस्टिट्यूट" नहीं बुला सकता। न्यायलय के शब्दों में अगर बात करें तो यह एक गंभीर उत्तेजना के सामान माना जायेगा। इसके साथ ही न्यायलय ने इससे जुडी काफी और बातों पर भी रौशनी डाली है। इस निर्णय से कहा जा सकता है कि महिलाओं को घरेलु हिंसा और अपमान से राहत मिल सकती है।
अगर हम इन सभी निर्णयों को मिला कर देखें, तो यह देखा जा सकता है कि अब महिलाओं के मामले में सर्वोच्च न्यायलय गंभीर हो गयी है। लेकिन उसी तरफ इन सारे निर्णयों को महसूस होता हुआ देखना काफी मुश्किल है।
एक-एक करके आईये सभी निर्णयों पर चर्चा करते हैं। समलैंगिकता को गुनाह बताने वाले कानून को सर्वोच्च न्यायलय ने असंवैधानिक करार कर दिया। लेकिन अगर अध्यनों को देखा जाये और अनुसंधानों की रिपोर्ट्स पर ध्यान दें, तो हम यह महसूस करेंगे कि एलजीबीटी समुदाय के लोगों की स्तिथि में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है। उसके बाद आता है सबरीमाला का विषय। क्या सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय के बाद भी महिलाओं को समान अधिकार मिले हैं? जवाब की जरुरत नहीं है क्यूंकि पूरा दृश्य हमारे सामने है। क्या तीन तलाक के निर्णय पर पूरा देश एकजुट होकर अमल कर पाया? बिलकुल नहीं।
यह कहा जा सकता है कि यदि हम पूरे दिल से यह चाहते हैं कि महिलाओं को उनके अधिकार मिलें और समाज में समानता हो, तो मात्र निर्णय भर से काम नहीं चलने वाला। इन निर्णयों को लागू करने के लिए भी सर्वोच्च न्यायालयों को सख्ती बरतनी चाहिए। इससे सभी को मूल रूप से अपने अधिकार और न्याय मिल सकेंगे।
यह एक जाहिर सी बात है कि जब पूरा देश सर्वोच्च न्यायलय का इतना आदर और सम्मान करता है, तो हम यहां पर पूर्ण इन्साफ और न्याय की उम्मीद भी करेंगे। हालांकि यह देखा जा सकता है कि महिलाओं को हाल ही में इस इंसाफ की प्राप्ति हुई है। अगर सिर्फ महिलाओं की बात की जाये, तो कुछ निर्णय ऐसे हैं जो हमारे न्यायलय को खुद से ही ले लेने चाहिए थे। यह टिप्पड़ी मैं इसलिए कर रही हूं क्यूंकि अगर हम सर्वोच्च न्यायलय द्वारा किसी भी ऐतिहासिक निर्णय का अगर अध्यन करें, तो हम देखेंगे की हर निर्णय के पीछे एक लम्बी कहानी, लोगों की पीड़ा, या कोई न कोई आंदोलन शामिल है।
इसी बात को अगर एक और सन्दर्भ में देखा जाये तो वह यह है कि सर्वोच्च न्यायलय अब निर्णय काफी प्रगतिशील तरह से ले रहा है। लेकिन जब तक कोई निर्णय पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया जायेगा या उस पर कानूनी तौर पर अमल नहीं किया जायेगा, तो उस निर्णय को लोकार्पित करने का कोई लाभ नहीं है।
पिछले ही वर्ष हमारी सर्वोच्च अदालत ने महिलाओं के सन्दर्भ में काफी महत्वपूर्ण निर्णय लिए थे। हमे फक्र है कि यह प्रक्रिया अभी तक ज़ारी है| क्यूंकि हाल ही में न्यायलय ने यह फैसला सुनाया है कि कोई भी पति अपनी पत्नी पर अभद्र टिप्पड़ी करते हुए उसे "प्रॉस्टिट्यूट" नहीं बुला सकता। न्यायलय के शब्दों में अगर बात करें तो यह एक गंभीर उत्तेजना के सामान माना जायेगा। इसके साथ ही न्यायलय ने इससे जुडी काफी और बातों पर भी रौशनी डाली है। इस निर्णय से कहा जा सकता है कि महिलाओं को घरेलु हिंसा और अपमान से राहत मिल सकती है।
इतना ही नहीं, पिछले वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायलय ने समलैंगिकता, तीन तलाक, और सबरीमाला जैसे गंभीर मुद्दों पर अपना प्रगतिशील फैसला सुनाया था।
अगर हम इन सभी निर्णयों को मिला कर देखें, तो यह देखा जा सकता है कि अब महिलाओं के मामले में सर्वोच्च न्यायलय गंभीर हो गयी है। लेकिन उसी तरफ इन सारे निर्णयों को महसूस होता हुआ देखना काफी मुश्किल है।
एक-एक करके आईये सभी निर्णयों पर चर्चा करते हैं। समलैंगिकता को गुनाह बताने वाले कानून को सर्वोच्च न्यायलय ने असंवैधानिक करार कर दिया। लेकिन अगर अध्यनों को देखा जाये और अनुसंधानों की रिपोर्ट्स पर ध्यान दें, तो हम यह महसूस करेंगे कि एलजीबीटी समुदाय के लोगों की स्तिथि में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है। उसके बाद आता है सबरीमाला का विषय। क्या सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय के बाद भी महिलाओं को समान अधिकार मिले हैं? जवाब की जरुरत नहीं है क्यूंकि पूरा दृश्य हमारे सामने है। क्या तीन तलाक के निर्णय पर पूरा देश एकजुट होकर अमल कर पाया? बिलकुल नहीं।
यह कहा जा सकता है कि यदि हम पूरे दिल से यह चाहते हैं कि महिलाओं को उनके अधिकार मिलें और समाज में समानता हो, तो मात्र निर्णय भर से काम नहीं चलने वाला। इन निर्णयों को लागू करने के लिए भी सर्वोच्च न्यायालयों को सख्ती बरतनी चाहिए। इससे सभी को मूल रूप से अपने अधिकार और न्याय मिल सकेंगे।