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Digital Feminism Womens voices on social media are they really safe: आज की दुनिया में जब सबकुछ डिजिटल हो गया है, तो नारीवाद की आवाज़ें भी online flatform पर तेज़ी से गूंज रही हैं। महिलाएं अब सोशल मीडिया के ज़रिए अपने हक़ की बात खुलकर कह रही हैं चाहे वो #MeeToo हो, बॉडी पॉज़िटिविटी की बात हो या फिर घरेलू हिंसा के खिलाफ़ आवाज़। लेकिन क्या इंटरनेट का ये लोकतंत्र महिलाओं के लिए सच में सुरक्षित है? या फिर ये एक और ऐसा मैदान बन गया है जहाँ उन्हें डर, trolling और शोषण का सामना करना पड़ता है?
सोशल मीडिया पर उठती महिलाओं की आवाज़ें, क्या वाकई हैं सुरक्षित?
ऑनलाइन प्लैटफॉर्म्स पर बढ़ती नारीवादी मौजूदगी
Feminism अब सिर्फ किताबों या सड़कों तक सीमित नहीं रहा। इंस्टाग्राम, ट्विटर (अब X), यूट्यूब और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर महिलाएं अपने अनुभव साझा कर रही हैं, समाज के दोहरे मापदंडों पर सवाल उठा रही हैं और हज़ारों-लाखों लोगों तक अपनी आवाज़ पहुँचा रही हैं। ये एक क्रांति जैसा है, जहाँ एक गांव की लड़की भी दुनिया भर की महिलाओं से जुड़कर सशक्त महसूस कर सकती है।
लेकिन क्या यह स्पेस सुरक्षित है?
जैसे-जैसे महिलाओं की ऑनलाइन मौजूदगी बढ़ रही है, वैसे-वैसे उन्हें ट्रोलिंग, ऑनलाइन बदतमीज़ी, सेक्सुअल कमेंट्स, मॉर्फ की गई तस्वीरें, और रेप थ्रेट्स जैसी भयावह चीज़ों का सामना भी करना पड़ रहा है। एक लड़की अगर साहस करके यौन उत्पीड़न के खिलाफ़ बोलती है, तो सबसे पहले उस पर ही सवाल उठाए जाते हैं। उसे झूठा, अटेंशन सीकर या 'संस्कृति विरोधी' करार दे दिया जाता है।
ऑनलाइन एक्टिविज़्म और मानसिक दबाव
डिजिटल फेमिनिज़्म में जितनी ताकत है, उतना ही भावनात्मक बोझ भी। रोज़ाना ट्रोलिंग झेलना, लगातार अपनी बात साबित करने की ज़रूरत, और ऑनलाइन उत्पीड़न ये सब मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डालते हैं। कई महिलाएं आवाज़ उठाने के बाद खुद ही पीछे हट जाती हैं क्योंकि उन्हें अकेला छोड़ दिया जाता है, या फिर उनका मज़ाक उड़ाया जाता है।
क्या सोशल मीडिया कंपनियाँ ज़िम्मेदार हैं?
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स अक्सर महिलाओं की शिकायतों पर तुरंत कार्रवाई नहीं करते। जब कोई यूज़र किसी महिला को धमकी देता है या गंदी बातें लिखता है, तो रिपोर्ट करने के बावजूद भी कई बार उस अकाउंट पर कोई असर नहीं होता। ऐसे में महिलाओं को अपनी सुरक्षा के लिए बार-बार खुद ही समझौते करने पड़ते हैं प्रोफाइल लॉक करना, कमेंट बंद करना या सोशल मीडिया ही छोड़ देना।
आवाज़ उठाना अब भी ज़रूरी है
इन तमाम खतरों और डर के बावजूद, महिलाओं की Online आवाज़ें बेहद ज़रूरी हैं। यही वो माध्यम है जो सेंसरशिप और सामाजिक दबाव से थोड़ी राहत देता है। डिजिटल फेमिनिज़्म ने उन लोगों को भी बोलने की ताकत दी है जो कभी बोल ही नहीं पाते थे ट्रांस महिलाएं, दलित महिलाएं, क्वीयर कम्युनिटी की महिलाएं, और हाशिए पर खड़ी लाखों लड़कियाँ।
डिजिटल दुनिया महिलाओं के लिए जितनी सशक्त बनाने वाली है, उतनी ही डराने वाली भी। लेकिन यह बदलाव का ज़रिया है, और बदलाव कभी भी आसान नहीं होता। हमें सोशल मीडिया को एक सुरक्षित और सशक्त मंच बनाने के लिए मिलकर काम करना होगा ताकि हर महिला बिना डर के अपनी बात कह सके।