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हिंदू कैलेंडर के अनुसार, हर महीने की 11 वीं तिथि को एकादशी कहा जाता है। एकादशी भगवान विष्णु को समर्पित दिन माना जाता है। एक महीने में दो पखवारे होने के कारण दो एकादशी होती हैं, एक शुक्ल पक्ष और दूसरी कृष्ण पक्ष की। इस प्रकार, एक वर्ष में कम से कम 24 एकादशी हो सकती हैं, लेकिन अधिक मास के मामले में, यह संख्या 26 भी हो सकती है।
एकादशी का व्रत तीन दिन की दिनचर्या से संबंधित है। उपवास के एक दिन पहले दोपहर में भोजन लेने के बाद भक्त शाम के भोजन नहीं लेते हैं, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि अगले दिन पेट में कोई बचा हुआ भोजन नहीं है। भक्त एकादशी के उपवास के नियमों का सख्ती से पालन करते हैं और अगले दिन सूरज निकलने के बाद ही व्रत समाप्त होता है। एकादशी व्रत के दौरान सभी प्रकार के अनाज खाने की मनाही होती है।
वैष्णव समुदाय के अलग-अलग भक्तों के अनुसार एकादशी व्रत की तिथियां अलग-अलग हो सकती हैं। जानिए इस्कॉन एकादशी कैलेंडर 2020 की तारीखें! इस व्रत को करने से भगवान विष्णु और माता माता लक्ष्मी की कृपा हमेशा हम पर बनी रहती है।इस व्रत को करने के मेहतवा शास्त्रों में भी दिया गया है।
प्राचीन समय में मुचुकुंद नाम के एक राजा थे। जिनकी मित्रता देवराज इंद्र, यम, वरुण, कुबेर एवं विभीषण से थी। वह बड़े धार्मिक प्रवृति वाले व सत्यप्रतिज्ञ थे। उनके राज्य में सभी सुखी थे। उनकी चंद्रभागा नाम की एक पुत्री थी, जिसका विवाह राजा चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ था। एक दिन शोभन अपने ससुर के घर आया तो संयोगवश उस दिन एकादशी थी। शोभन ने एकादशी का व्रत करने का निश्चय किया। चंद्रभागा को यह चिंता हुई कि उसका पति भूख कैसे सहन करेगा? इस विषय में उसके पिता के आदेश बहुत सख्त थे। राज्य में सभी एकादशी का व्रत रखते थे और कोई खाना नहीं खता था।
शोभन ने अपनी पत्नी से कोई ऐसा उपाय जानना चाहा, जिससे उसका व्रत भी पूर्ण हो जाए और उसे कोई कष्ट भी न हो, लेकिन चंद्रभागा उसे ऐसा कोई उपाय न सूझा सकी। ऐसे में परेशान होकर शोभन ने स्वयं को भाग्य के भरोसे छोड़कर व्रत रख लिया। लेकिन वह भूख, प्यास सहन न कर सका और उसकी मृत्यु हो गई। इससे चंद्रभागा बहुत दु:खी हुई। पिता के विरोध के कारण वह सती नहीं हुई। उधर शोभन ने रमा एकादशी व्रत के प्रभाव से मंदराचल पर्वत के शिखर पर एक उत्तम देवनगर प्राप्त किया। वहां ऐश्वर्य के समस्त साधन उपलब्ध थे। गंधर्वगण उसकी स्तुति करते थे और अप्सराएं उसकी सेवा में लगी रहती थीं। एक दिन जब राजा मुचुकुंद मंदराचल पर्वत पर आए तो उन्होंने अपने दामाद का वैभव देखा। वापस अपनी नगरी आकर उसने चंद्रभागा को पूरा हाल सुनाया तो वह अत्यंत प्रसन्न हुई। वह अपने पति के पास चली गई और अपनी भक्ति और रमा एकादशी के प्रभाव से शोभन के साथ सुखपूर्वक रहने लगी।
व्रत करने की विधि
एकादशी का व्रत तीन दिन की दिनचर्या से संबंधित है। उपवास के एक दिन पहले दोपहर में भोजन लेने के बाद भक्त शाम के भोजन नहीं लेते हैं, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि अगले दिन पेट में कोई बचा हुआ भोजन नहीं है। भक्त एकादशी के उपवास के नियमों का सख्ती से पालन करते हैं और अगले दिन सूरज निकलने के बाद ही व्रत समाप्त होता है। एकादशी व्रत के दौरान सभी प्रकार के अनाज खाने की मनाही होती है।
जो लोग किसी भी कारण से एकादशी का व्रत नहीं रखते हैं, उन्हें एकादशी के दिन भोजन में चावल का उपयोग नहीं करना चाहिए और झूठ और ईश निंदा से बचना चाहिए। जो व्यक्ति एकादशी पर विष्णुसहस्रनाम का पाठ करता है, उसे भगवान विष्णु का विशेष आशीर्वाद प्राप्त होता है।
वैष्णव समुदाय के अलग-अलग भक्तों के अनुसार एकादशी व्रत की तिथियां अलग-अलग हो सकती हैं। जानिए इस्कॉन एकादशी कैलेंडर 2020 की तारीखें! इस व्रत को करने से भगवान विष्णु और माता माता लक्ष्मी की कृपा हमेशा हम पर बनी रहती है।इस व्रत को करने के मेहतवा शास्त्रों में भी दिया गया है।
व्रत की कथा श्रीपद्म पुराण के अनुसार
प्राचीन समय में मुचुकुंद नाम के एक राजा थे। जिनकी मित्रता देवराज इंद्र, यम, वरुण, कुबेर एवं विभीषण से थी। वह बड़े धार्मिक प्रवृति वाले व सत्यप्रतिज्ञ थे। उनके राज्य में सभी सुखी थे। उनकी चंद्रभागा नाम की एक पुत्री थी, जिसका विवाह राजा चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ था। एक दिन शोभन अपने ससुर के घर आया तो संयोगवश उस दिन एकादशी थी। शोभन ने एकादशी का व्रत करने का निश्चय किया। चंद्रभागा को यह चिंता हुई कि उसका पति भूख कैसे सहन करेगा? इस विषय में उसके पिता के आदेश बहुत सख्त थे। राज्य में सभी एकादशी का व्रत रखते थे और कोई खाना नहीं खता था।
शोभन ने अपनी पत्नी से कोई ऐसा उपाय जानना चाहा, जिससे उसका व्रत भी पूर्ण हो जाए और उसे कोई कष्ट भी न हो, लेकिन चंद्रभागा उसे ऐसा कोई उपाय न सूझा सकी। ऐसे में परेशान होकर शोभन ने स्वयं को भाग्य के भरोसे छोड़कर व्रत रख लिया। लेकिन वह भूख, प्यास सहन न कर सका और उसकी मृत्यु हो गई। इससे चंद्रभागा बहुत दु:खी हुई। पिता के विरोध के कारण वह सती नहीं हुई। उधर शोभन ने रमा एकादशी व्रत के प्रभाव से मंदराचल पर्वत के शिखर पर एक उत्तम देवनगर प्राप्त किया। वहां ऐश्वर्य के समस्त साधन उपलब्ध थे। गंधर्वगण उसकी स्तुति करते थे और अप्सराएं उसकी सेवा में लगी रहती थीं। एक दिन जब राजा मुचुकुंद मंदराचल पर्वत पर आए तो उन्होंने अपने दामाद का वैभव देखा। वापस अपनी नगरी आकर उसने चंद्रभागा को पूरा हाल सुनाया तो वह अत्यंत प्रसन्न हुई। वह अपने पति के पास चली गई और अपनी भक्ति और रमा एकादशी के प्रभाव से शोभन के साथ सुखपूर्वक रहने लगी।