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चाहे वो शादी से पहले हो या शादी की बेड़ियों में बंधकर। औरतो के लिए तो शादी का दूसरा नाम ही समझौता होता है । अपने घर , अपने नाम, अपने रिश्ते सभी से समझौता करो। कभी समाज, कभी परिवार तो कभी झूठे रिश्तो के लिए समझौते करती है बेटियां । समझौते करने के बाद उन समझौतों को हमारे अपने ही नहीं समझते। कोई कभी बेटो से तो नहीं कहता सझौते करने को । शादी के बाद कोई भी माँ-बाप अपने बेटो से तो नहीं कहता की तुम्हे भी समझौते करने होंगे, तुम पर भी ज़िम्मेदारी है अपने परिवार की मान -मर्यादा को बनाये रखने की । हर बात का बोज बस औरतो के कंधो पर ही क्यों ? और सबसे आश्चर्यजनक बात की कोई समझना भी नहीं चाहता उनके समझोतो को, उनके संघर्षो को और अगर उन्हें कोई खिताब मिलता भी है तो वो है सिर्फ दोषी होने का ।
शादी के बाद पति के साथ भी समझौता करती है औरते। परिवार की ज़िम्मेदाररियों के लिए सपनो के साथ समझौता और तो और घर की इज़्ज़त बनाये रखने के लिए अपने साथ हो रहे अन्याय के लिए चुप रहकर समझौता। हर बार समझौते के लिए औरतों को ही क्यों मजबूर किया जाता है ?
हमे बदलाव लाना होगा वो भी औरतो को इस समझौते नाम की बेड़ी को तोडना होगा। जीवन में अपने साथ हो रही हर नाइंसाफी के लिए हम खुद ज़िम्मेदार होते है क्योंकि हम खुद उस अन्याय को सहकर उसे बढ़ावा देते है और तो और फिर उसे नाम देते है सझौते का । हम महिलाओं को खुद ही अपनी चुप्पी तोड़कर समझोतो के नाम पर अपने साथ हो रहे अन्याय को खत्म करना होगा ।