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आपको क्या लगता है कि पीरियड मिथ्स कोई पुरानी और भूली-बिसरी बातों की कहानी है? खैर, अगर आपको लगता है तो शायद आप ये नहीं जानते कि इन बातों को इतना नॉर्मलाइज़ कर दिया गया है कि इसका आपकी ज़िंदगी में एक अहम रोल निभाते हुए भी आप उसे नॉटिस नहीं कर पाते। आज भी ऐसी कई औरतें हैं जो पीरियड होने पर किचन में पांव तक नही रखती। और तो और इसके बारें में बात करना उनके लिए शायद सेक्स करने से भी ज्यादा शर्मनाक है। पीरियड शर्मिंदगी का स्त्रोत क्यों है?
कई स्कूलों में आज भी पीरियड्स के टॉपिक पर लड़कियाँ शांत हो जाती हैं और लड़के उनका मज़ाक उड़ाते हैं। लड़के लड़कियों के बेग में पैड देखकर या स्कर्ट पर ब्लड स्टेन देखकर उनको तंग करते हैं, मज़ाक बनाते हैं। यहां तक कि कुछ महिलाएं खुद ही पैड को या ब्लड स्टेम को छिपाने की कोशिश करती हैं ताकि किसी को पता ना चले कि उन्हें पिरीयड्स हो रहे हैं। और तो और आज भी ऐसा माना जाता है कि महिलाए अपने पिरियड ब्लड का यूज़ जादू-टोना के लिए करती हैं।
अपनी बात पर दोबारा आते हुए मैं आपको एक सर्वे के बारे में बताती हूं जो आपको ये समझने में मदद करेगा कि किस तरह पीरियड मिथ्स आज के टाईम में भी हमारे सोसायटी में अपनी पकड़ मज़बूत किए हुए है और हम उस पर सवाल भी नही करते। WHO के 2017 के सर्वें के अनुसार ये पता चला कि 45 प्रतिशत लड़कियां आज भी पीरियड को एक टेबू मानती हैं। 45 प्रतिशत लड़कियों का पैड नही खरीद सकती और बाकी लड़कियां उन दिनों में पैड के बजाए कपड़ा यूज़ करना ही बेहतर समझती हैं।
हमें इस बात को स्वीकार करना ही चाहिए कि हमारे देश के लोगों की परवरिश ही ऐसे माहोल में होती है जहां उन्हें लड़कियों को पीरियड होने पर इम्प्योर, उनकी सेक्शुएलिटी पर पर्दा और उस पर पाबंदी लगाना आम सी बात लगती है।
ज़रा सोचिए पीरियड हमारे समाज में अभी तक एक नॉर्मल डिस्कशन का भी टॉपिक क्यों नही बन पाया है क्योंकि हम बनाना ही नहीं चाहते भईया। कोई नहीं इस पर बात करना चाहता कि पीरियड मिथ्स किस तरह महिलाओं के जीवन को बद् से बद्तर करता जाता है। महिलाएँ खुद भी इसके लिए जिम्मेदार है क्योंकि वो इऩ बातों को अपनी किसी करीबी महिला रिश्तेदार औऱ किचन के बीच रखती हैं जबकि समय आ गया है कि ये बातें अब वहां से घर के ड्रॉइंग रूम में बैठे उन मर्दों के कानों तक जाए।
इसके अलावा क्या आपने कभी ये सवाल करने की ज़हमत उठाई कि सरकार द्वारा लाई गई पॉलिसी में कोई पॉलिसी हमारे पीरियड्स की बात क्यों नही करती? हमारे देश के स्कूलों में कितनी बार इस टॉपिक से जुड़े अवेयरनेस प्रॉग्राम हुए जिसमें लड़कों को भी शामिल किया गया हो? कितनी बार मंदिरों के पंडितों ने महिलाओं को शक की नज़र से ना देखा हो? मतलब इतना कुछ के बावजूद हम कैसे भूल जाते हैं कि हमारे समाज. से, हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से पीरियड मिथ्स खत्म हो गए हैं।
जहां तक मुझे लगता है इस टॉपिक को नॉर्मलाइज़ करने का पहला कदम ही ये है कि आप पहले बिना झिझक के बिना डर के बिना कोई शर्म के 'पीरियड' बोलना सीखें, बजाएं कहने के कि महीने के वो दिन चल रहे हैं", "मैं पूजा नही कर सकती", "मैं आचार नही छू सकती।" दूसरा कदम ये होना चाहिए कि हम हर लड़की को शुरूआत से ही पीरियड्स के बारें में, पैड-टेम्पोन यूज़ करने के बारे में, पीरियड क्रेम्पस के बारें में अच्छे से समझाएं। और तीसरा कदम ये कि अपने बॉडी में हो रहे बदलावों को लेकर उस पर शर्म ना करें। पीरियड्स ही तो हैं, एक नैचुरल प्रोसेस इसमें क्या घबराना और क्या शर्माना। जो आपको इसके लिए नीचा दिखाएं या मज़ाक उड़ाएं तो उसे समझाइयें कि आखिर पीरियड है क्या साथ में परिस्थितियों के अनुसार 2 थप्पड़ भी दें ताकि आगे से उस व्यक्ति की हिम्मत ना हो ऐसा करने की।
कई स्कूलों में आज भी पीरियड्स के टॉपिक पर लड़कियाँ शांत हो जाती हैं और लड़के उनका मज़ाक उड़ाते हैं। लड़के लड़कियों के बेग में पैड देखकर या स्कर्ट पर ब्लड स्टेन देखकर उनको तंग करते हैं, मज़ाक बनाते हैं। यहां तक कि कुछ महिलाएं खुद ही पैड को या ब्लड स्टेम को छिपाने की कोशिश करती हैं ताकि किसी को पता ना चले कि उन्हें पिरीयड्स हो रहे हैं। और तो और आज भी ऐसा माना जाता है कि महिलाए अपने पिरियड ब्लड का यूज़ जादू-टोना के लिए करती हैं।
अपनी बात पर दोबारा आते हुए मैं आपको एक सर्वे के बारे में बताती हूं जो आपको ये समझने में मदद करेगा कि किस तरह पीरियड मिथ्स आज के टाईम में भी हमारे सोसायटी में अपनी पकड़ मज़बूत किए हुए है और हम उस पर सवाल भी नही करते। WHO के 2017 के सर्वें के अनुसार ये पता चला कि 45 प्रतिशत लड़कियां आज भी पीरियड को एक टेबू मानती हैं। 45 प्रतिशत लड़कियों का पैड नही खरीद सकती और बाकी लड़कियां उन दिनों में पैड के बजाए कपड़ा यूज़ करना ही बेहतर समझती हैं।
हमें इस बात को स्वीकार करना ही चाहिए कि हमारे देश के लोगों की परवरिश ही ऐसे माहोल में होती है जहां उन्हें लड़कियों को पीरियड होने पर इम्प्योर, उनकी सेक्शुएलिटी पर पर्दा और उस पर पाबंदी लगाना आम सी बात लगती है।
और इसलिए आज भी पीरियड नॉर्मल डिस्कशन का टॉपिक नही है..
ज़रा सोचिए पीरियड हमारे समाज में अभी तक एक नॉर्मल डिस्कशन का भी टॉपिक क्यों नही बन पाया है क्योंकि हम बनाना ही नहीं चाहते भईया। कोई नहीं इस पर बात करना चाहता कि पीरियड मिथ्स किस तरह महिलाओं के जीवन को बद् से बद्तर करता जाता है। महिलाएँ खुद भी इसके लिए जिम्मेदार है क्योंकि वो इऩ बातों को अपनी किसी करीबी महिला रिश्तेदार औऱ किचन के बीच रखती हैं जबकि समय आ गया है कि ये बातें अब वहां से घर के ड्रॉइंग रूम में बैठे उन मर्दों के कानों तक जाए।
लड़के लड़कियों के बेग में पैड देखकर या स्कर्ट पर ब्लड स्टेन देखकर उनको तंग करते हैं, मज़ाक बनाते हैं। यहां तक कि कुछ महिलाएं खुद ही पैड को या ब्लड स्टेम को छिपाने की कोशिश करती हैं ताकि किसी को पता ना चले कि उन्हें पिरीयड्स हो रहे हैं।
इसके अलावा क्या आपने कभी ये सवाल करने की ज़हमत उठाई कि सरकार द्वारा लाई गई पॉलिसी में कोई पॉलिसी हमारे पीरियड्स की बात क्यों नही करती? हमारे देश के स्कूलों में कितनी बार इस टॉपिक से जुड़े अवेयरनेस प्रॉग्राम हुए जिसमें लड़कों को भी शामिल किया गया हो? कितनी बार मंदिरों के पंडितों ने महिलाओं को शक की नज़र से ना देखा हो? मतलब इतना कुछ के बावजूद हम कैसे भूल जाते हैं कि हमारे समाज. से, हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से पीरियड मिथ्स खत्म हो गए हैं।
बस ज़रूरत है इन 3 कदमों को अपनाने की
जहां तक मुझे लगता है इस टॉपिक को नॉर्मलाइज़ करने का पहला कदम ही ये है कि आप पहले बिना झिझक के बिना डर के बिना कोई शर्म के 'पीरियड' बोलना सीखें, बजाएं कहने के कि महीने के वो दिन चल रहे हैं", "मैं पूजा नही कर सकती", "मैं आचार नही छू सकती।" दूसरा कदम ये होना चाहिए कि हम हर लड़की को शुरूआत से ही पीरियड्स के बारें में, पैड-टेम्पोन यूज़ करने के बारे में, पीरियड क्रेम्पस के बारें में अच्छे से समझाएं। और तीसरा कदम ये कि अपने बॉडी में हो रहे बदलावों को लेकर उस पर शर्म ना करें। पीरियड्स ही तो हैं, एक नैचुरल प्रोसेस इसमें क्या घबराना और क्या शर्माना। जो आपको इसके लिए नीचा दिखाएं या मज़ाक उड़ाएं तो उसे समझाइयें कि आखिर पीरियड है क्या साथ में परिस्थितियों के अनुसार 2 थप्पड़ भी दें ताकि आगे से उस व्यक्ति की हिम्मत ना हो ऐसा करने की।