Recognise Your Inner "Laapataa Ladies" Through This Film: “लापता लेडीज़” केवल दो नई नवेली दुल्हनों के खोने की कहानी नही है, बल्कि असल मायने में उनके ख़ुद को पाने की कहानी है। मार्च 1, 2024 को रिलीज़ हुई यह फ़िल्म दर्शाती है कि जीवन में विकट परिस्थितियाँ आने पर ही हम अपने कम्फ़र्ट जोन से बाहर आ पाते हैं और वो सब कर पाते हैं जिसकी हमने कभी कल्पना भी नही करी होती।
पहचानिये अपने अंदर की “Laapataa Ladies” को इस फिल्म के द्वारा
1. जया का किरदार सिखाता है अपने सपनों के लिए हद से गुज़र जाना
ट्रेन के सफर में “जया” अपने लंबे धूंगट, और “दीपक” की नासमझी को क़िस्मत का इशारा समझती हुई, अपने पति से पीछा छुड़ा लेती है। वो जैविक खेती में अपना भविष्य बनाने के लिए चालाकी से अपने घहने बेचती है और आखिर में सफल हो ही जाती है। उसका किरदार इतना मज़बूत है कि खुद के साथ-साथ वह घर में रहने वाली सभी महिलाओं को उनके अंदर की प्रतिभाओं को निखारने में मदद करती है। जया का किरदार बताता है कि जीवन में शादि-ब्याह से भी अधिक ज़रूरी आपके सपने होते हैं।
2. अकेलापन श्राप नहीं, वर्दान है
फिल्म में मंजू माई एक ऐसा किरदार है, जिनको जीवन में प्रेम न पति से मिला और न ही बच्चों से। लेकिन फिर भी हार न मानते हुए, उन्होंने अपने जीवन को अकेले जीने की ठानी। रेलवे स्टेशन पर एक छोटी सी चाय की दुकान को अपने जीवन की भूमिका बनायी। मंजू माई “भले घर की बहूँ-बेटि” की इस उक्ती को एक फ्रॉड मानती है क्योंकि एक लड़की को समाज के अनुरूप बनाने के चक्कर में वह अपनी महत्वाकांक्षाओं को ख़त्म कर देती है। इस किरदार से ये समझ आता है कि एक महिला अपने जीवन को अगर अकेले भी जीना चाहे तो उसमें कोई बुराई नहीं है।
3. तुम फूल हो तो काटों से क्या घबराना
रेलवे स्टेशन पर खोई एक और दुल्हन “फूल” को घर की सफाई से लेकर खाना बनाना और सिलाई करना तक आता है, लेकिन उसके घर का पता पूछो तो वह उसे नहीं पता। यह किरदार दर्शाता है कि किस तरह भारत में आज भी लड़कियों को घर के अंदर के सभी काम अच्छे से सिखाते हैं, बाहर की बुरी नजरों से बचाते हैं, लेकिन सांसारिक ज्ञान नही दिया जाता जिसके कारण वह समझदार होकर भी मूर्ख ही कहलाती हैं। इस फिल्म में फूल ने न केवल रेलवे स्टेशन पर कलाकंद बेच कर लोगों के जीवन में मिठास पैदा की, बल्कि स्वयं को भी आर्थिक सशक्तीकरण की चाशनी में डुबो दिया। अब फूल को विकट परिस्थितियाँ रूपी काटो से डर नहीं, अब वो वह गुलाब है जो खुद तो महकता ही है और दूसरों को भी महकाता है।
जहाँ कुछ हिंदी फ़िल्मों ने टौक्सिक मैस्क्युलैनिटी को बढ़ावा दिया है, वहीं लापता लेडीज़ एक ताज़ी हवा के झोके जैसी है। जिस तरह इस फिल्म की शहरों के लोगों ने प्रशंसा की है, उसी तरह गांव-कस्बों में भी यह फिल्म पहुँचे तो हिंदी सिनेमा की असल जीत होगी।