Motherhood: A Beautiful Journey or Hidden Challenges? Rupali Ganguly's Perspective: माँ शब्द का अर्थ जितना सरल है, उसका अनुभव उतना ही जटिल और गहरा होता है। एक माँ के कोमल स्पर्श और ममता भरे आँचल में दुनिया का सारा सुख समाहित होता है। मासूम बच्चे की किलकारी और पहली डगमगाती चाल हर माँ के चेहरे पर खुशी की लहर ला देती है। मगर क्या मातृत्व का सफर सिर्फ खुशियों के गीत गाता है? क्या यह उतना ही आसान है जितना समाज दिखाता है?
टेलीविज़न की जानी-मानी अभिनेत्री रूपाली गांगुली, जो इन दिनों अनुपमा सीरियल में अपने दमदार अभिनय से दर्शकों का दिल जीत रही हैं, ने हाल ही में मातृत्व के एक अलग पहलू को सामने लाया है। उन्होंने 'शी द पीपल' के साथ एक साक्षात्कार में उन चुनौतियों और भावनाओं को साझा किया, जिनके बारे में खुलकर बात नहीं की जाती है। रूपाली की ये बातें शायद हर उस माँ की कहानी बयां करती हैं जो मातृत्व के सुखद पहलुओं के साथ-साथ इसके अनकहे संघर्षों से भी जूझती हैं।
आइए, रूपाली गांगुली के नज़रिए से मातृत्व की गहराई में उतरें और जानें कि मां बनना वाकई में कैसा अनुभव होता है। क्या यह सिर्फ खुशियों का गुलदस्ता है या अनकही चुनौतियों का पिटारा?
रूपाली गांगुली और उनका मातृत्व का सफर (Rupali Ganguly's Journey of Motherhood)
हाल ही में रूपाली गांगुली ने 'शी द पीपल' के साथ बातचीत में मातृत्व के उन पहलुओं को साझा किया जिनके बारे में खुलकर बात नहीं की जाती है। उन्होंने बताया कि वह अपने बच्चे को स्तनपान नहीं करा सकीं। रूपाली कहती हैं, "मुझे दूध नहीं आया और इस वजह से मैं खुद को कमज़ोर महसूस करती थी। मैं पूरी तरह से परेशान थी। पोस्टपार्टम डिप्रेशन एक सच है।" हालाँकि, रूपाली यह भी बताती हैं कि इस अनुभव ने उन्हें यह सीख दी कि स्तनपान ही सब कुछ नहीं है। बच्चे के जन्म के तुरंत बाद ही माँ का दूध आ जाना ज़रूरी नहीं है।
पोस्टपार्टम डिप्रेशन: रूपाली गांगुली ने कैसे किया पार (Rupali Ganguly's Battle with Postpartum Depression)
समाज सिर्फ मातृत्व की खूबसूरती के बारे में ही बात करता है। बच्चे को देखने का आनंद, संतान प्राप्ति की खुशी और समाज व परिवार के प्रति एक महिला के कर्तव्य की पूर्ति - यही सब कुछ समाज के लिए मातृत्व को परिभाषित करता है। लेकिन बच्चे के जन्म के बाद का सफर कैसा होता है? क्या यह उतना ही सुंदर है जितना समाज दिखाता या कल्पना करता है? क्या यह उन नौ महीनों के दौरान माँ के अनुमानों से जुड़ा है? नहीं।
बल्कि, बच्चे के जन्म के बाद का सफर माताओं को मानसिक रूप से परेशान करने के लिए काफी कठिन होता है। यह अव्यवस्थित, भावनात्मक, नकारात्मक और कभी-कभी घातक भी हो सकता है।
अपने मातृत्व अनुभव के बारे में बात करते हुए, रूपाली गांगुली कहती हैं, "मैं डरी हुई थी। आपने इस छोटे से प्राणी को दुनिया में लाया है और उसकी ज़िम्मेदारी लेनी है। इसलिए मुझे लगता है कि हर माँ सबसे पहले यही महसूस करती है - डर।"
इसके अलावा, रूपाली ने बताया कि मातृत्व ने उनके व्यक्तित्व को कैसे बदला। उन्होंने कहा, "मैं बहुत लापरवाह इंसान थी, यहाँ तक कि महामारी के दौरान भी। लेकिन बच्चे के जन्म के बाद मैं एक अति-सुरक्षात्मक माँ बन गई। मैं दरवाजे पर सैनिटाइज़र लेकर खड़ी हो जाती थी और लोगों को मेरे बच्चे को छूने से पहले खुद को साफ करने के लिए कहती थी।"
मातृत्व एक व्यक्तिगत सफर है (Motherhood is an Individual Journey)
दुर्भाग्य से, मातृत्व को एक व्यक्तिगत सफर के रूप में नहीं देखा जाता है। इसे एक सामाजिक परियोजना माना जाता है, जिस पर हर किसी को अपनी राय देने का हक़ है। मैं उन बिना मांगे सलाह के बारे में बात कर रही हूँ जो लोग माताओं को एक बेहतर माँ बनने के लिए देते हैं। रूपाली इस धारणा को तोड़ती हैं और महिलाओं को मातृत्व के बारे में खुद सीखने के महत्व पर बल देती हैं।
रूपाली कहती हैं, "अगर आप माँ हैं, तो लोग आपको एक बेहतर माँ बनने के लिए कई तरह की सलाह देंगे। लेकिन मातृत्व एक व्यक्तिगत सफर है जो हर महिला के लिए अलग होता है। हर महिला ने नौ महीनों के दौरान कुछ न कुछ सीखा होगा।"
हालांकि, रूपाली इस बात से इनकार नहीं करती हैं कि मातृत्व वाकई में एक खास और खूबसूरत सफर है। वो कहती हैं, "वो नौ महीने जब बच्चा आपके अंदर होता है, वो सबसे खास होते हैं। जब आप बच्चे को बाहर निकलते देखती हैं तो वो पल बहुत ही खूबसूरत होता है। मातृत्व एक खूबसूरत सफर है। इसका बस लुत्फ़ लीजिए।"
समाज के मातृत्व के नज़रिए की बनावट को तोड़ते हुए रूपाली कहती हैं, "मातृत्व के बारे में कोई सख्त नियम नहीं है। सिर्फ इसलिए कि दूसरों ने ऐसा किया, आपको भी वैसा ही करने की ज़रूरत नहीं है। हम में से हर एक का अपने बच्चों के साथ अलग अनुभव होता है और यही खूबसूरत है, इसे सँजोकर रखना चाहिए।"
तो आइए, मातृत्व को सामाजिक परंपराओं के हिसाब से नहीं, बल्कि हर माँ के अपने तरीके से परिभाषित होने के रूप में स्वीकार करें। ज़ाहिर है, बच्चे की गीली डायपर तो समाज नहीं बदलेगा ना!
यह लेख रुद्रानी गुप्ता के लेख से प्रेरित है।