Advertisment

क्या एक "बुरी स्त्री" बनकर ही हम आज़ाद हो सकते हैं?

author-image
Swati Bundela
एडिट
New Update
हमारे समाज के अनुसार लड़कियाँ या तो अच्छी हो सकती हैं या बिगड़ैल। "अच्छी लड़की" की श्रेणि में आने के लिए बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं इसलिए बचपन से ही माँ-बाप लड़कियों की ट्रेनिंग शुरू कर देते हैं। हमें लड़कियों की तरह चलना, बोलना, हँसना सिखाया जाता है ताकि आगे चल कर यही चाल-चलन हमारा कैरेक्टर सर्टिफिकेट बन सकें।

Advertisment


अच्छी लड़कियों की परिभाषा में फ़िट होने के लिए लड़की को कटपुतली की तरह जीवन व्यतीत करना होता है। शादी होने तक माँ-बाप के इशारों पर नाचो और शादी के बाद पति के। "अच्छी लड़कियाँ" सेवा भावी होती हैं, उन्हें घर के सभी काम काज आते हैं, वे कभी किसी काम को 'ना' नहीं बोलतीं, वे समय पर घर आती हैं और उतना ही बोलती हैं जितना उन्हें बोलने को कहा जाता है। इसके मुकाबले "बुरी लड़की" होना आसान है। बस घर के सामने दो लड़के आ गये या स्लीवलेस पहन लिया और बन गयी लड़की बिगड़ैल। बुरी होने के लिए लड़की का बोल्ड होना ही काफ़ी है क्योंकि लोग हर लड़की में विवाह की पूनम देखना चाहते हैं, कुछ-कुछ होता है कि अंजली(पहले वाली) नहीं।

लड़कियों को "अच्छाई" छोड़ देनी चाहिए

Advertisment


मेरी माँ को हमेशा दूसरी औरतों से बेहतर बनने की होड़ लगी रहती है ताकि लोग उनकी तारीफ़ करें। अच्छा बनने के लिए माँ अपनी कैपेसिटी से दोगुना काम करती हैं और अपना दर्द कभी किसी से नहीं बतातीं। इससे दो तरह की परेशानियाँ होती हैं, एक तो उन्हें मशीन की तरह काम करना पड़ता है, दूसरा बाकी महिलाओं के प्रति प्रतिस्पर्धा की भावना बनी रहती है। इस तरह से "अच्छी स्त्री" ख़ुद से और बाकी स्त्रियों से दूर हो जाती है।



ऐसे ही मेरी एक सहेली अपने बॉयफ़्रेंड के साथ घूमते वक़्त मुँह पर कपड़ा बांधती है ताकि लोग उसे देख कर कैरेक्टरलेस न बोल दें। उसके लिए अपनी खुशी और आज़ादी से ज़्यादा ज़रूरी ये है कि लोग उसे किस नज़रिये से देखते हैं।
Advertisment


कागज़ पर लिखी आज़ादी लड़कियों के लाइफ का पार्ट कब बनेगा?



हम लड़कियों को देश की आज़ादी के साथ ही संवैधानिक तौर पर लिंग के आधार पर होते भेद-भाव से मुक्ति मिल गयी। कानून की नज़रों में सब बराबर और अपने हिसाब से जीने को स्वतंत्र हैं। संविधान के साथ-साथ समाज में भी महिलाओं को सशक्त बनाने की चेतना जगी। और उस समय से जो महिलाओ की आज़ादी की बात उठी, उस पर बहस आज भी कायम है। लेकिन आज महिला सशक्तिकरण के प्रचारकों के चिंता का विषय ये नहीं है कि लड़कियों को कोख़ में मारने की प्रथा कब बन्द होगी, बल्कि चर्चा तो इस बात पर है कि सशक्तिकरण के नाम पर लड़कियाँ हाथ से निकलने लगी हैं, कैरेक्टरलेस होने लगी हैं, इनका क्या किया जाए, कैसे रोका जाए?
Advertisment




ज़ाहिर है कि समाज लड़कियों की आज़दी से डरता है इसलिए हमें अच्छी लड़कियाँ बना कर रखने का हर सम्भव प्रयास करता है। अपनी बनाई ज़ंजीरों को समाज हमें कुछ इस तरह से पहनाता है कि वो हमें चूड़ियाँ नज़र आती हैं। हम लड़कियाँ इस मायाजाल को समझ नहीं पातीं और इसमें फँस जाती हैं।

Advertisment

खुद के लिए स्टेंड लेकर बुरा बनना बिल्कुल सही है



अगर पति की मार खाने से स्त्री अच्छी बन भी जाती हैं तो इसका क्या लाभ? इससे तो उनके खिलाफ़ रपट लिखवा कर बुरा बन जाना ही बेहतर है। कितनी ही लड़कियाँ अच्छी बनने की चाह में अपने साथ हुए दुर्व्यव्हार को छुपाये बैठी रहती हैं। जिन रिश्तेदारों ने अकेले में यौन शोषण किया हो, उनसे भी दुनिया के सामने मुस्कुरा कर मिलती हैं। गलतियाँ करने से इस कदर डरती हैं जैसे वो इंसान ही ना हों।

Advertisment

लड़के करें तो सही, लड़कियां करे तो करेक्टरलेस



समाज का दोगलापन तो देखिये, लड़कों का चाय की टपरी पर बैठ कर घण्टों बतियाना सही है लेकिन लड़की का पान की दुकान पर दो मिनट खड़ा होना भी उन्हें बेशर्म बना देता है। लड़के लेट से घर आएँ तो उन्हें मेहनती कहा जाता है और लड़कियाँ लेट आएँ तो आवारा हो जाती हैं। लड़के शॉर्ट्स पहने तो "गर्मी लगती होगी" और लड़कियाँ पहनें तो "शरीर दिखाना चाहती है"। अच्छाई और बुराई का पाठ केवल हमें पढ़ाया जाता है क्योंकि "लड़के तो लड़के होते हैं"।

लड़कियों को मर्दों द्वारा बनाई गई सीमाओं को लांघने की ज़रूरत है



समाज के बंधनों से मुक्त होने के लिए बुरा बनने की ज़रूरत है। अच्छी स्त्री आज के समय में उतनी ही ग़ैर ज़रूरी है, जितना उसे अच्छा बनाने वाला सिस्टम। स्त्री सशक्तिकरण तभी सम्भव है जब स्त्री विमुक्त हो वरना ये पुरुष प्रधान समाज अपनी ज़रूरत के मुताबिक स्त्री सशक्तिकरण की परिभाषा देता रहेगा और हम यूं ही पिसती रहेंगी। हमारी आज़ादी की कुंजी "बुरी स्त्री" बनने में है इसलिए लड़कियों को सीमाएं लाँघनी पड़ेंगी।
बुरी स्त्री
Advertisment