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पितृसत्ता उसकी पैरवी कर रहे मर्दों के लिए भी है सबसे ज्यादा खतरनाक, जानिये कैसे

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Swati Bundela
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आप चाहे अमेरिका जैसे एक डेवलप्ड देश में रहें या भारत जैसे डेवलपिंग देश में, समाज में आदमियों को औरतों से हमेशा ऊपर का दर्जा मिला है। समाज की इस सोच को पैट्रिआर्कल (patriarchal) या पितृसत्तात्मक सोच कहा जाता है। इसके मुताबिक आदमी सिर्फ आदमी होने की वजह से औरतों और नॉन-बाइनरी और ट्रांस लोगों से बेहतर हैं। (मर्दों के लिए पितृसत्ता के नुकसान)

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अक्सर मर्द पितृसत्तात्मक सोच और रवैये की मर्द पैरवी करते हैं और फेमिनिज्म को गालियां देते हैं। लेकिन क्या वाकई सदियों से चली आ रही ये सोच आदमियों के लिए फायदेमंद है? नहीं, ये सोच इंसानियत को नहीं सिर्फ मर्दानगी, ताकत और पावर को सपोर्ट करती है। चलिए आपको बताते हैं कैसे पैट्रिआर्क (patriarch) सोच आदमियों के लिए भी बेहद खतरनाक है और इसे खत्म करना सभी के लिए फायदेमंद है।

एक सेट जेंडर रोल्स

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एक पैट्रिआर्क (patriarch) समाज में जेंडर के आधार पर रोल सेट होते हैं। ऐसे में इसके मुताबिक औरतों को घर पर ही रहते हुए घर का काम करना चाहिए और आदमियों को बाहर कमाने जाना चाहिए। यहां किसी की इच्छा और सपनों की कोई जगह नहीं है। नौकरी करना और पैसे कमाना आदमी की जिम्मेदारी बना दी जाती है। अगर कोई मर्द कुछ दिन काम ना करते हुए घर में ही समय बिताना चाहता है तो उसे कामचोर, आलसी, नल्ला और नकारा कहा जाता है। घर का काम करने पर आदमियों को ताने मारे जाते हैं और जोरू का गुलाम जैसे तमगे दे दिए जाते हैं। यानि अगर कोई व्यक्ति अपने ही घर का, जहां वो रहता है, कोई काम कर रहा है तो वो अपनी पत्नी का गुलाम है लेकिन सालों से पत्नी वही काम कर रही है तो वो उसकी ड्यूटी है? जेंडर के आधार पर तय किये गए ये काम आदमी को घर पर रहने, रिलैक्स करने और काम ना करने की कोई छूट नहीं देते।



पर्सनल पसंद-नापसंद में इस सोच की दखल

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क्या आप एक आदमी हैं और आपको किचन में काम करना, खाना बनाना पसंद है? या आप मारधाड़ वाली फिल्मों की जगह रोमांटिक फिल्में देखना पसंद करते हैं? आप डॉक्टर, इंजीनियर या MBA ना करके लिटरेचर पढ़ना चाहते हैं? तो बधाई हो, आपको अक्सर लोगों के ताने, उनके मजाक और हंसी का पात्र बनना पड़ेगा। ऐसे में आपकी पर्सनल चॉइस और इच्छाओं की कोई वैल्यू नहीं है, सिर्फ बने-बनाये नियमों के अनुसार ही व्यवहार करना मान्य है।



हाइपरमैस्कुलिन व्यवहार और वॉयलेंस को बढ़ावा (mardon ke liye pitrasatta ke nuksan)

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कुछ समय पहले टिकटॉक और यूट्यूब के लोगों के बीच कुछ विवाद हुआ था। इस विवाद में एक यूट्यूबर से एक टिकटॉकर को 'बेटी' और 'मीठा' कहा था क्योंकि वो टिकटॉकर अपने वीडियोज में कई बार महिलाओं के गेटअप में वीडियो बनाता था। सदियों से चली आ रही पेट्रिआर्कि के चलते आदमियों (और औरतों) के दिमाग में ये सोच बैठी हुई है कि जो एंग्री यंग मैन नहीं है, मारपीट नहीं करता वो मर्द नहीं है। क्रॉसड्रेसर, ट्रांस और होमोसेक्शुअल आदमियों को इस हाइपरमैस्कुलिनिटी का खामियाजा हमेशा भुगतना पड़ा है। लड़ाई, झगड़ा, हिंसा पर गर्व करना और सामने वाले को हमेशा पराजित करने की ये पेट्रिआर्कल सोच आदमियों को इंसान नहीं बने रहने देती। (मर्दों के लिए पितृसत्ता के नुकसान)



लड़कों के साथ हुए रेप और सेक्शुअल असॉल्ट की अनदेखी

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पेट्रिआर्कल (patriarchal) सोच के मुताबिक लड़कों के साथ रेप या सेक्शुअल असॉल्ट हो ही नहीं सकते। लेकिन असल जिंदगी में ये सच नहीं हैं। बहुत से आदमी और लड़के बाकी आदमियों द्वारा किये गए सेक्शुअल असॉल्ट के बारे में पुलिस कंप्लेंट ही नहीं कर पाते क्योंकि वो सोचते हैं कि इससे उन्हें कम मर्द माना जायेगा। अपनी तकलीफ वो किसी से बांटते नहीं क्योंकि उन्हें डर होता है कि दुनिया उन्हीं पर हंसेगी। अगर वो हिम्मत करके शिकायत दर्ज करते भी हैं तो अक्सर पुलिस प्रशासन, कोर्ट कचहरी में भी इसे सीरियस क्राइम की तरह ट्रीट नहीं किया जाता। इस वजह से कितने ही क्राइम अनसुने रह जाते हैं।



इमोशंस के लिए कोई जगह नहीं

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'लड़के होकर रो रहे हो?', 'क्या हर मूवी में आंसू बहाने लगता है', 'हॉरर फिल्म देखकर डरता है फट्टू' ये बातें आपने भी कही या सुनी होंगी। पेट्रिआर्कि के चलते आदमियों को अपने इमोशंस जाहिर करने की छूट ही नहीं है। वो रो नहीं सकते, डर नहीं सकते, प्यार में इमोशनल नहीं हो सकते। सिर्फ एक ही इमोशन है जो वो जाहिर कर सकते हैं, गुस्सा ! गुस्सा इसलिए क्योंकि ये बहादुरी का इमोशन माना जाता है जो उनकी मर्दानगी साबित करता है। लेकिन असल में ये गुस्सा उन सभी नाजुक इमोशंस का विस्फोट होता है जो वो अंदर दबाये बैठे हैं। जब उनके दुख, दर्द, डर, प्यार को एक्सप्रेस करने की जगह नहीं मिलती, वो गुस्से के रूप में निकलते हैं जो कभी दूसरे का तो कभी खुद का नुकसान कर देते हैं।



पेट्रिआर्कि या पितृसत्तात्मकता एक आउटडेटेड सोच बन चुकी है जो आज के बदलते समाज में फिट नहीं बैठती। इसीलिए इसका खत्म होना जरूरी है। अगर आप एक आदमी हैं जो इससे होने वाले नुकसान को नहीं देख पा रहे थे तो मुझे उम्मीद है कि इस आर्टिकल ने आपकी मदद की होगी।

हर किसी को अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने का हक़ है और सिर्फ यही सच है। पेट्रिआर्कि के ये सामाजिक ढर्रे जाने कितने पुराने हो चुके हैं। ये ना पहले सही थे ना अब सही हैं, बस इनके बारे में समझ हर दौर के साथ बढ़ती जा रही है। फेमिनिज्म की यही लड़ाई है, सभी को बराबरी का हक़ मिले चाहे वो आदमी हों, औरत हों, नॉन-बाइनरी और ट्रांस हों। (मर्दों के लिए पितृसत्ता के नुकसान)
फेमिनिज्म सोसाइटी मर्दों के लिए पितृसत्ता के नुकसान
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