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पढ़िये भारतीय इतिहास की 5 नारीवादी महिलाओं के बारे में
1. सावित्रीबाई फुले (Savitribai Phule)
सावित्रीबाई फुले को भारत की प्रथम महिला शिक्षिका के रूप में जाना जाता है। इन्होंने उस दौर में महिला शिक्षा की बात की जब महिलाओं और दलितों को सबसे पिछड़ा माना जाता था और इन्हें शिक्षा प्राप्त करने की मनाई थी। सावित्रीबाई फुले ने शिक्षा का अधिकार, जो केवल ऊँची जाती के पुरुषों के पास था, दलितों और महिलाओं तक पँहुचाया।
सावित्रीबाई फुले ने अपने पति के साथ मिलकर 1848 में महिलाओं के लिए एक स्कूल की स्थापना की। शुरुआती दौर में इस स्कूल में केवल नौ कन्याएँ थी। लेकिन एक वर्ष के अंदर ऐसे और पाँच स्कूल खुले। ज़ाहिर सी बात है कि महिलाओं की पढ़ाई रोकने के लिए ऊँची जाती के पुरुषों ने कई प्रयास किये। यहाँ तक की सावित्रीबाई पर पत्थर और गोबर भी फेका गया। पर इनका हौसला टस से मस नहीं हुआ। सावित्रीबाई ने बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए उन्हें महीना वेतन देना भी शुरू किया और समय समय पर बच्चों के माता-पिता से मिलकर उन्हें पढ़ाई का महत्व समझाती रहीं।
1850 में फुले ने महिला सेवा मंडल की स्थापना की, जहाँ औरतों को उनके अधिकार और गर्व से जीवन जीने के बारे में बताया जाता था। उस समय विधवा महिलाओं के सर मुंडवाने की प्रथा ज़ोरों शोरों से चल रही थी, जिसके खिलाफ़ इन्होंने मुंबई और पुणे में बार्बर स्ट्राइक करवाये। इन्होंने ज्योतिबा फुले के सत्य शोधक समाज में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
"चौका बर्तन से बहुत ज़रूरी है पढ़ाई,
क्या तुम्हें मेरी बात समझ में आई?" ~ सावित्रीबाई फुले
फुले अंग्रेज़ी शिक्षा को दलितों और औरतों की आज़ादी की चाबी मानती थी। उनका विचार था कि केवल शिक्षा ही इन कुप्रथाओ को समाज से मिटा सकता है।
2. कमलादेवी चटोपाध्याय (Kamaladevi Chattopadhyay)
कमलादेवी चटोपाध्याय तब प्रसिद्ध हुईं जब उन्होंने गाँधीजी से सत्याग्रह में महिलाओं को शामिल करने की माँग की। उसके बाद वो लगातार महिलाओं को सशक्त बनाने की ओर कदम बढ़ाती रहीं। इन्होंने फैक्ट्रियों और खेतों में महिलाओं के लिए बेहतर काम की परिस्थितियों की पैरवी करने और उनके मैटरनिटी लीव के अधिकार के लिए मौखिक रूप से आंदोलन किया।
कमलादेवी ने लोगों को नारीवाद का असल मतलब समझाया। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि कोई भी महिला आंदोलन ऐंटी मेन नहीं है, ये केवल स्त्री-पुरुष समानता लाने के लिए होता है। इसलिए इसमें महिला और पुरुष, दोनों को ही शामिल होना चाहिए।
इन्होंने महिलाओं द्वारा किये गए गृहकार्य के प्रति लोगों की चेतना जगाई और कहा कि पुरुष महिलाओं को आर्थिक सहायता प्रदान करने वाले कोई नहीं होते, ये तो हर स्त्री का अधिकार है कि वो घर के काम करने के लिए भुगतान पाए। साथ ही उन्होंने महिलाओं को घर से निकल कर अपने शौक पूरे करने के लिए प्रेरणा दी।
1942 में कमलादेवी ऑल इंडिया विमेंस कान्फ्रेंस की प्रेसिडेंट बनीं, जिसके बाद इन्होंने मैटरनिटी लीव, मैरिज बिल और मोनोगैमी जैसे लॉस का समर्थन किया।
3. ताराबाई शिंदे (Tarabai Shinde)
जिस समय बाकी समाज सुधारक महिलाओं की शिक्षा और सति प्रथा जैसे मुद्दों पर बात कर रहे थे, उस समय ताराबाई शिंदे मर्दों की ऑथोरिटी को ही चैलेंज करने में लगी हुई थीं। इनकी विचारधारा बाकियों से अलग और रैडिकल थी। इनसे पहले किसी ने भी सामाजिक व्यवस्था को सीधे तौर पर चुनौती नहीं दी थी, ये पहली थीं जिसने पितृसत्ता और पुरुष प्रधानता पर प्रश्न खड़े कर दिए।
ताराबाई ने एक 52 पेज की किताब लिखी, जिसमें उन्होंने महिलाओं के घरेलू श्रम को इज़्ज़त देने की बात की। साथ ही उन्होंने स्त्री शिक्षा का विरोध करते पुरुषों से कहा कि "आपके और आपकी विशाल शक्ति के आगे महिलाओं को क्या ताकत मिली है? उन्हें कुछ भी नहीं मिला। आप महिलाओं को सनकी कहते हैं, हो सकता है ये सच भी हो लेकिन इसका कारण भी आप हैं क्योंकि आपने ही हमेशा उन्हें शिक्षा से दूर रखा।"
ताराबाई ने पॉलीगैमी का विरोध किया है। वो कहती हैं कि कुछ लोग अपनी बेटियों को किसी की दूसरी पत्नी बना कर भेज देते हैं, और वो बेटियाँ ज़िंदगी भर दुख में जीती हैं। जो लोग महिलाओं को अय्याश कहते हैं, उन्हें जवाब देते हुए ताराबाई ने कहा कि "यदि मर्द अय्याशी को तौलते हैं, तो तराजू मर्दों के पक्ष में ही सौ गुना भारी हो जाएगा।" इनकी किताब में भाषा इतनी स्पष्ट है कि आज भी पितृसत्ता के पुजारियों को चीर दे। इनके उठाए हुए मुद्दे आज भी रेलेवेंट है।
4. पंडिता रमाबाई (Pandita Ramabai)
पंडिता रमाबाई जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वाली नारीवादी समाज सुधारक थीं। इनकी अद्भुत भाषाई ज्ञान के चलते थियोसोफ़िकल सोसाइटी ने इन्हें 'पंडिता' और 'सरस्वती' की उपाधि दी। इन्होंने पुणे में 'आर्य महिला समाज' की स्थापना की, जहाँ महिलाओं को पढ़ाने लिखाने का और बाल विवाह जैसी कुरीतियों को रोकने का काम किया जाता था।
इनकी किताब 'द हाई कास्ट हिंदू विमेन' में बाल विवाह, सति प्रथा जैसी प्रथाओं का विरोध है और इस किताब की दस हज़ार कॉपीज़ बिकीं थी। किताब के पैसों से इन्होंने विधवाओं के लिए एक संस्था खोली थी, जिसमें विधवा औरतों को शिक्षा प्रदान की जाती थी। इन्होंने मुख्य तौर से महाराष्ट्र की पितृसत्तात्मक घटनाओं पर प्रकाश डाला।
रमाबाई ने ब्राह्मण होकर एक "नीची" जाति से व्यक्ति से शादी करने की हिम्मत दिखाई। शादी के दो साल बाद ही इनके पति का देहांत होगया और ये विधवा होगयीं पर इन्होंने ख़ुद को कभी कलंकित महसूस नहीं किया और हमेशा गर्व से जीती रहीं। इन्होंने सारी उम्र महिलाओं को शिक्षा संस्थानों में स्थान दिलाने के लिए काम किया। इसके अलावा इनका ये भी मानना था कि महिलाओं को बड़ी संख्या में मेडिकल कॉलेजेस में दाखिला लेना चाहिए। इन्होंने ने मुक्ति मिशन के अंतरगत लोगों को शेल्टर भी प्रदान किया।
5. कॉर्नेलिआ सोराबजी (Cornelia Sorabji)
कॉर्नेलिआ सोराबजी पुणे के डेक्कन कॉलेज में दाखिला लेने वाली भारत की प्रथम महिला हैं। कॉलेज में अच्छे अंको से पास होने के बाद, कॉर्नेलिआ ने ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में आगे की पढ़ाई करने का निर्णय लिया। ऑक्सफ़ोर्ड से इन्होंने बैचलर ऑफ़ सिविल लॉ किया और ये ऑक्सफ़ोर्ड से यूनिवर्सिटी से पढ़ने वाली भारत की प्रथम महिला बनीं।
पढ़ाई के बाद कॉर्नेलिआ ने भारत में महिलाओं के प्रॉपर्टी राइट्स के बारे में जागरूकता फ़ैलाने की शुरुआत की। इन्होंने कानूनी सलाहकार के तौर पर महिलाओं को उनके हकों के बारे में बताया। इसके बाद इन्होंने ब्रिटिश सरकार से महिलाओं के लिए एक कानूनी सलाहकार की नियुक्ति करने की माँग की। इसके बाद इन्होंने भारत के कई इलाकों में महिलाओं की सहायता की।
कॉर्नेलिआ ने 1923 के बाद वकालत शुरू की क्योंकि इससे पहले महिलाओं का कोर्ट में बहस करना लीगल नहीं था। कॉर्नेलिआ हाईकोर्ट तो गयीं पर वहाँ इन्हें सदस्यता नहीं दी गयी क्योंकि ये एक महिला थीं। इसके खिलाफ कॉर्नेलिआ ने लड़ाई की और तब जाकर उन्हें कोर्ट की मेंबरशिप मिली।
इन्होंने लड़कियों को शिक्षा दिलाने, विधवाओं की बुरी स्तिथि, व सति प्रथा जैसी चीज़ों को मिटाने का प्रयास किया।