प्यार एक ऐसा शब्द है जिसका नाम सुनकर हमारे माता पिता या तो टीवी का चैनल बदल देते हैं या ख़ुद उठ कर चले जाते हैं (यहाँ प्यार का मतलब रोमांटिक लव है)। जब भी प्यार के सम्बन्धों पर चर्चा चिढ़ती है, हमें हमारी लक्ष्मण रेखा याद दिला दी जाती है क्योंकि समाज के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी है परिवार की प्रतिष्ठा, जो 'प्यार' करने से मिट्टी में मिल जाती है। शादी भी हमारे समाज में परिवार बनाने का और सम्मान पाने का एक तरीका भर है क्योंकि यहाँ अरेंज मैरिज करके दो लोगों को घर चलाने के लिए छोड़ दिया जाता है, उनमें प्यार हो या ना हो उन्हें ज़िंदगी भर रिश्ता तो निभाना ही पड़ता है। और लव मैरिज की तो बात ही क्या करें, इसका तो समाज ऐसा विरोधी है कि सरकार को 'लव जिहाद' जैसे कानून बनाने पड़ जाते हैं।
प्यार को लेकर इस हद तक शर्मिंदगी है कि कोई अपनी पत्नी से भी खुल कर प्यार नहीं कर सकता। शादी दो लोगों के बीच रिश्ता तो जोड़ती है लेकिन वो रिश्ता सिर्फ़ एक कमरे के अंदर ही निभाया जा सकता है। कमरे से बाहर निकल कर दोनों एक दूसरे से केवल कर्तव्य के माध्यम से जुड़े होते हैं। किसी पत्नी का अपने पति को गले से लगाना ही उसे बेशर्म बनाने के लिए काफ़ी है।
समाज के लिए प्यार की परिभाषा भी विचित्र है। ये माना जाता है कि लोग या तो प्यार के जाल में फंस सकते है या फंसा सकते हैं, लेकिन प्यार कर नहीं सकते इसीलिए मुझे बचपन से ही सतर्क किया गया कि लड़कों से दूरी बनाके रखनी चाहिए, इसी में भलाई है। लोग तो अपनी बेटियों को "बचाने के लिए" गर्ल्स स्कूल और गर्ल्स कॉलेज भेजते हैं ताकि उनके 'प्यार' में फंसने के चांसेस कम हो जाएँ और पढ़ाई खत्म होते ही शादी हो जाए।
प्यार पर पिछड़ी सोच का वार
हम बचपन से अपनी सिविक्स की किताबों में पढ़ते आएँ हैं कि भारत 'अनेकता में एकता' वाला देश है। लेकिन समय के साथ समझ आता है कि ये स्लोगन हकीकत से कितना दूर है। हम एक ऐसी सभ्यता का हिस्सा हैं जहाँ देशभक्ति सर्वोपरि है, यहाँ देश के नाम पर दंगे तक हो जाते हैं लेकिन दुःख की बात है कि हमारे लिए देश का मतलब केवल इसकी सीमाएँ हैं, इसमें बसने वाले लोग नहीं। हमारे लिए देश का मतलब बॉर्डर पर होने वाली लड़ाई है, आपसी प्यार नहीं। हम कितने भी तीज त्योहार साथ में क्यों ना मना लें, हमारे बीच में हमेशा एक सीमा रहती है और इस सीमा का नाम है 'प्यार'। रिश्ते जोड़ने के लिए केवल जाति, धर्म और क्लास ही मायने रखता है तभी तो इंटरकास्ट या इंटरफेथ मैरिज करने पर माँ-बाप बच्चों से सम्बन्ध ही तोड़ लिया करते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के हज़ारों प्रोग्रेसिव जजमेंट्स देने के बाद भी ग्राउंड रियलिटी वही है जो संविधान बनाते समय थी और जिसे बदलने के लिए ही संविधान बनाया गया था। अब देखिये ना, कोर्ट ने भले ही सेक्सन 377 को अवैध घोषित कर दिया हो, लेकिन लोगों के लिए आज भी होमोसेक्शुअल लव क्राइम ही है। यूट्यूब पर आपको कई ऐसी वीडियोज़ मिल जाएँगी जिसमें घर से भागे हुए युवक युवतियाँ अपनी दास्ताँ सुनाते हैं और बताते हैं कि वे किस प्रकार अपनी जान बचा कर भागने में कामयाब हुए हैं।आए दिन आपको अख़बारों में ऑनर किलिंग की खबरें मिल जाएँगी जिसमें लड़की को सिर्फ़ इस संदेह में मार दिया जाता है कि उसका किसी के साथ अफ़ेयर था। लिव इन रिलेशनशिप को तो बातों में डिफ़ेंड करना ही इंसान को चरित्रहीन बना देता है।
प्यार पर किसी भी तरह का बंधन इंसान की स्वतंत्रता और निजता पर ख़तरा है
प्यार "करने" की तो कोई प्रक्रिया ही नहीं होती, प्यार तो बस हो जाता है और उस समय हमारी जाति, धर्म, लिंग व अन्य सभी आइडेंटिटीज़, पीछे रह जाती हैं। प्यार तो इंसान को बेहतर बनाता है और ये बिल्कुल नैचुरल है फ़िर इसको लेकर शर्मिंदगी कैसी? यदि माँ का प्रेम, पिता का प्रेम, भाई का प्रेम, समाज में पूजा जा सकता है तो रोमांटिक लव को एक्सेप्ट करने में समाज को क्या समस्या है? इस बात का लोगों के पास कोई तर्क नहीं है, बस सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी विचारधारा को बिना सोचे समझे एक्सेप्ट किए बैठे हैं।
हर इंसान अपना साथी चुनने के लिए स्वंतंत्र है। इस मामले में कोई भी किसी के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं कर सकता। 'प्यार' व्यक्ति के निजी जीवन का हिस्सा है और इसमें दखल देना निजता पर हमला है। हमें एक ऐसे समाज की स्थापना करनी होगी जहाँ प्रेम को सबसे पवित्र बंधन माना जाए, जहाँ प्रेम पर किसी भी तरह टैक्स ना चुकाना पड़े। एक "वैश्या" और उसके ग्राहक के बीच का प्रेम भी कृष्ण और मीरा के प्रेम की तरह ही देखा जाना चाहिए।
समाज से लड़ते-लड़ते प्यार जैसी सरल और सहज भावना, क्रांति बन चुकी है। इसे तभी बदला जा सकता है जब माता पिता ख़ुद अपने बच्चों को प्यार का मतलब समझाएँ और उन्हें प्यार से जुड़े सारे बंधनों को तोड़ने की आज़ादी दें।