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साक्षी श्रीवास्तव भट्टाचार्य का, जो कि स्पिरिट ऑफ ट्रेक्क्र्स की सह संस्थापक है।
दिल्ली में रहने वाली साक्षी ने भारतीय सेना में 1998 से लेकर 2004 यानी कि 6 साल तक यानी कि 1998-2004 तक। इसके बाद उन्होंने अपनी रक्षा एजेंसी कोलकाता से शुरू की। दो साल पहले इन्होंने अपने खुद के व्यावसायिक कार्य के लिए इस एजेंसी को छोड़ दिया।
आर्मी से व्यवसाय तक
“मैंने देश के एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा कर रखी है और अलग अलग तरह के लोगों से बात कर रखी है। ये एक लाभ की चीज़ है क्योंकि हर कोई पूरा देश नही घूमा है”, वो बताती है कि कैसे उनके आर्मी बैकग्राउंड ने उन्हें इस ट्रेकिंग के जुनून के शुरुआत की प्रेरणा दी।
इस उद्यम के साथ वो ये आकांक्षा रखती है कि इन ट्रैकिंग अनुभवों के साथ वो बहुत से लोगो को हिमालय में ट्रैकिंग का प्रत्यक्ष अनुभव करवाना चाहती है।
उन्होंने कहा कि आर्मी ट्रेनिंग एक इंसान के नज़रिये को बहुत तरह से बदलता है। “हम किसी को पुरुष या स्त्री के रूप में नही बल्कि एक मनुष्य की तरह देखते हैं ”, उन्होंने कहा। उनका ये कहना है है कि ये एक इंसान को काफ़ी दृढ़ संकल्पित बनाता है और आर्मी के लोगो को जितना सम्मान, इज़्ज़त और गौरव मिलता है, वो हमें आगे ले जाता है।
खूबसूरत अनुभव
हिमालय में ट्रैकिंग करना एक समृद्धि अनुभव है। “जब आप ट्रैकिंग करते है,आप समाज से अलग होते है, तब आप सिर्फ प्रकृति पे निर्भर होते है”, उनका कहना है इसके साथ कि ये हमें प्रकृति से जोड़ता है और हमारे अंदर के एनवीरोंमेंटलिस्ट को उज्जागर करता है।
कठिनाईयां
साक्षी को इस व्यावसायिक सफर में कुछ तकलीफें झेलनी पड़ी। उनका ये मानना है कि ट्रैकिंग और इस रोमांचक कार्य में लोगों की कमी है, बहुत सारे लोग इनमें जुड़े हुए नही है। उनका कहना है कि “इस कार्य को करने के लिए को सही तरीके का व्यावसायिक तरीका नही है, नाहि तो कोई दिशा-निर्देश है”।
टेक्नोलॉजी का हाथ
टेक्नोलॉजी और सोशल मीडिया ने वृद्धि ने साक्षी की बहुत मदद करी। वो अपनी बात सबको बता पायी।“अगर आप टेक्नोलॉजी को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल नही कर रहे तो आप पीछे हैं”, उनका ये मनना है।
रही बात भविष्य की तो उनका ये मनना है कि टेक्नोलॉजी की मदद से वो अपने इस पहल को लोगो तक पहुँचआएंगी। उनका ये संकल्प है कि उनके हिमालय के हर छोर तक जाना है और उन्होंने नेपाल हिमालय के साथ भी गठबंधन किया। आगे उनकी ये योजना है कि 16-60 साल के उम्र के बीच लोगो को वो प्रकृति की जड़ तक ले जाए।
दिल्ली में रहने वाली साक्षी ने भारतीय सेना में 1998 से लेकर 2004 यानी कि 6 साल तक यानी कि 1998-2004 तक। इसके बाद उन्होंने अपनी रक्षा एजेंसी कोलकाता से शुरू की। दो साल पहले इन्होंने अपने खुद के व्यावसायिक कार्य के लिए इस एजेंसी को छोड़ दिया।
आर्मी से व्यवसाय तक
“मैंने देश के एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा कर रखी है और अलग अलग तरह के लोगों से बात कर रखी है। ये एक लाभ की चीज़ है क्योंकि हर कोई पूरा देश नही घूमा है”, वो बताती है कि कैसे उनके आर्मी बैकग्राउंड ने उन्हें इस ट्रेकिंग के जुनून के शुरुआत की प्रेरणा दी।
इस उद्यम के साथ वो ये आकांक्षा रखती है कि इन ट्रैकिंग अनुभवों के साथ वो बहुत से लोगो को हिमालय में ट्रैकिंग का प्रत्यक्ष अनुभव करवाना चाहती है।
उन्होंने कहा कि आर्मी ट्रेनिंग एक इंसान के नज़रिये को बहुत तरह से बदलता है। “हम किसी को पुरुष या स्त्री के रूप में नही बल्कि एक मनुष्य की तरह देखते हैं ”, उन्होंने कहा। उनका ये कहना है है कि ये एक इंसान को काफ़ी दृढ़ संकल्पित बनाता है और आर्मी के लोगो को जितना सम्मान, इज़्ज़त और गौरव मिलता है, वो हमें आगे ले जाता है।
खूबसूरत अनुभव
हिमालय में ट्रैकिंग करना एक समृद्धि अनुभव है। “जब आप ट्रैकिंग करते है,आप समाज से अलग होते है, तब आप सिर्फ प्रकृति पे निर्भर होते है”, उनका कहना है इसके साथ कि ये हमें प्रकृति से जोड़ता है और हमारे अंदर के एनवीरोंमेंटलिस्ट को उज्जागर करता है।
कठिनाईयां
साक्षी को इस व्यावसायिक सफर में कुछ तकलीफें झेलनी पड़ी। उनका ये मानना है कि ट्रैकिंग और इस रोमांचक कार्य में लोगों की कमी है, बहुत सारे लोग इनमें जुड़े हुए नही है। उनका कहना है कि “इस कार्य को करने के लिए को सही तरीके का व्यावसायिक तरीका नही है, नाहि तो कोई दिशा-निर्देश है”।
टेक्नोलॉजी का हाथ
टेक्नोलॉजी और सोशल मीडिया ने वृद्धि ने साक्षी की बहुत मदद करी। वो अपनी बात सबको बता पायी।“अगर आप टेक्नोलॉजी को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल नही कर रहे तो आप पीछे हैं”, उनका ये मनना है।
रही बात भविष्य की तो उनका ये मनना है कि टेक्नोलॉजी की मदद से वो अपने इस पहल को लोगो तक पहुँचआएंगी। उनका ये संकल्प है कि उनके हिमालय के हर छोर तक जाना है और उन्होंने नेपाल हिमालय के साथ भी गठबंधन किया। आगे उनकी ये योजना है कि 16-60 साल के उम्र के बीच लोगो को वो प्रकृति की जड़ तक ले जाए।