भारत में हम कुछ त्योहारों और रीती-रिवाज़ों को काफी शौक से मनाते हैं। इतना ही नहीं, कुछ धार्मिक त्यौहार, रीति-रिवाज और धार्मिक परम्पराएं ऐसी हैं जिनका लोग बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। लेकिन बहुत कम लोगों को उनके द्वारा मनाये गए रीति-रिवाज और धार्मिक परम्पराओं का अर्थ पता होता है। इसलिए ज़रूरी है कि हम चीज़ों के मायनों को समझें और आपने ज्ञान में बढ़ोतरी कर उसका सही तरह से इस्तमाल करें। आई भारत के ऐसे कुछ रीति-रिवाज और धार्मिक परम्पराओं पर चर्चा करते हैं जो पितृसत्ता को दर्शाते हैं।
1.रक्षा बंधन
बहुत चाव से भारी मात्रा में हिंदुस्तान के लोग रक्षा बंधन के त्यौहार को मनाते हैं। यह त्यौहार भाई-बेहेन के रिश्ते को मज़बूत करता है। बहनें अपने भाइयों को राखी बांधती हैं और भाई यह प्रण लेते हैं कि वे जीवन भर अपनी बेहन की रक्षा करेंगे। गौर से देखा जाये, तो यहां आप पितृसत्ता का कोण ढूंढ सकते हैं। क्या सिर्फ भाई ही बेहेन की रक्षा कर सकते हैं? क्या उल्टा संभव नहीं है? ऐसी कई किस्से आपने अपने जीवन में देखे और महसूस किये होंगे जहां बेहेने अपने भाइयों के लिए कोई भी त्याग करने के लिए तैयार रहती हैं। तो फिर लिंग के आधार पर मतभेद क्यों?
2. करवा चौथ
इस त्यौहार में विवाहित महिलाएं अपने पति की लम्बी आयु के लिए पुरे दिन उपवास रखती हैं। वे पूरा दिन बिना कुछ खाये-पिए रहती हैं और रात में चाँद निकलने के बाद ही अपना उपवास तोड़ती हैं। यहां तो पितृसत्ता आपको सामने ही दिख जाएगी। क्या पत्नियों की लम्बी आयु होना जरुरी नहीं है? क्यों न पति भी अपनी जीवन साथी के लिए ऐसे ही व्रत रखें। यहां पर हमे उन पुरुषों की तारीफ जरूर करनी चाहिए जो अपनी पत्नियों के लिए उपवास रखते हैं।
3. दहेज़ प्रथा
भारत में दहेज़ प्रथा अनंतकाल से चली आ रही है। इसके साथ ही इससे जुडी हिंसा, मार-पीट, आदि के किस्से भी। दहेज़ प्रथा के चलते कन्या के परिवार के सदस्य पुरुष के परिवार के सदस्यों को जेवरात, तोहफे, नगद पैसे, आदि देते हैं। कहा यह जाता है कि माता-पिता यह सब इसलिए दे रहें हैं ताकि नयी जगह में उनकी बेटी को किसी चीज़ की समस्या न हो। लेकिन यह ढकोसलेबाजी लोगों को अब बंद कर देनी चाहिए। उन्हें स्वयं में इतना सक्षम होना चाहिए ताकि वे अपनी ज़रूरत की चीज़ें और सामन स्वयं खरीद सकें।
4. विदाई
विदाई के रस्म में लड़कियां विवाहित होने के बाद हमेशा के लिए अपने पति के घर चली जाती हैं। वे अपने माता-पिता के घर से ज्यादा अपने पति के घर का ज्यादा हिस्सा बन जाती हैं। उनकी जिम्मेदारियों का दायरा काफी हद तक बड़ जाता है। बात अगर घर जमाई की अवधारणा की हो, तो लोग हस कर टाल देते हैं और इस बात को गंभीरता से नहीं लेते। लेकिन अगर देखा जाये तो दोनों चीज़ों में कोई अंतर नहीं है। बस बीच में मानसिकता की एक गहरी खाई है।