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मुझे रोज़ के लैंगिक भेदभाव से आज़ादी चाहिए।
“ ढोल, गंवार , शूद्र , पशु ,नारी सकल ताड़ना के अधिकारी"
तुलसीदास जी की उपर्युक्त पंक्तियों से तो यही प्रतीत होता है कि प्राचीन काल से ही भारतीय स्त्री को हीनता की दृष्टि से देखा गया है तथा उसे ताड़ना का अधिकारी कहा गया है। अर्थात् उसे इस भेदाभाव का सामना प्राचीन काल से ही करना पड़ रहा है।
वर्तमान में भी लैंगिक असमानता समाज की एक ऐसी बुराई है, जिसका प्रभाव समाज के सिर्फ एक ही पक्ष पर देखा जाता है और उस उत्पीड़न का शिकार होने वाला पक्ष है - नारी। भारतीय समाज में नर तथा नारी को समाज रूपी गाड़ी के दो पहियों के रूप में कहा जाता है लेकिन यह वास्तविकता से बिल्कुल परे है। क्योंकि स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी हमारे समाज में नारी को वो सभी अधिकार नहीं मिले हैं जो उसे वास्तव में मिलना चाहिए। आज भी उसे अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। आज जीवन का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है जहां महिलाओं की भागदारी ना हो। शिक्षा, व्यापार, खेल, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में उनका योगदान उललेखनीय है। इसके बावजूद भी हमारे देश में अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहां लैंगिक भेदभाव आज भी दृष्टव्य है। जहां आज भी महिलाओं को हीनता की दृष्टि से देखा जाता है।
यातायात पुलिस में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना एक सराहनीय कदम है, लेकिन जब दो पहिया वाहन से निकलने वाला कोई आदमी जब उस महिला पुलिसकर्मी के शरीर के किसी अंग को स्पर्श करते हुए निकल जाता है तब यही कदम महिलाओं के लिए एक मजबूरी प्रतीत होता है।
राजनीति के क्षेत्र में भी महिला उम्मीदवार की नियुक्ति एक भ्रम प्रतीत होती है, क्योंकि इस पुरुष प्रधान समाज में मात्र नाम के लिए ही सत्ता उस महिला के हाथ में होती है, वास्तविक नियंत्रण तो उससे संबंधित पुरुष ( पिता या पति) का ही होता है।
उदाहरण के तौर पर, जैसा कि हम जानते हैं कि चुनावों का समय आने वाला है, जिसके कारण बड़ी बड़ी घोषणाएं दिन प्रतिदिन अखबारों में छपी होती हैं। दिल्ली डीटीसी बसों का किराया महिलाओं के लिए मुफ्त किया जाना उन्हीं घोषणाओं में से एक है। परंतु महिलाओं के लिए बसों का किराया मुफ्त करने से अधिक जरूरी बसों में उनकी सुरक्षा बढाना अधिक आवश्यक है।
इस प्रकार महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव समाज की दयनीय स्थिति को प्रदर्शित करते हैं। जब एक नारी जीवन के हर क्षेत्र में एक नर से कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है तो फिर उसे इस भेदभाव का सामना क्यूं करना पड़ रहा है? क्यूं आज भी देश के कुछ भागों में उसे एक बेटे से कम आंका जा रहा है? परन्तु अब वह इस भेदभाव से मुक्ति पाना चाहती है। इस पुरुष प्रधान समाज में वह भी अपनी एक पहचान बनाना चाहती है। अब वह मुक्त होना चाहती है समाज की इन बेड़ियों से। क्योंकि अब वह रोज के इस लैंगिक भेदभाव से आजाद होना चाहती है।
“विश्व ओलंपिक में जीता जिसने स्वर्ण पदक,
बन गई जो देश के लिए मिसाल।
फ़िर क्यूं ये भेदभाव नजर आता है,
जहां पी. वी. सिंधु जैसी बेटियां करतीं हैं।“
महिला विश्वविद्यालय में अध्ययन करने पर मुझे अनेक बातें सीखने का अवसर मिला, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं-
१. सबसे अधिक महत्वूर्ण बात जो मैंने महिला विश्वविद्यालय में पढ़कर सीखी है वह है स्वतंत्रता की भावना। क्यूंकि इसने मुझमें स्व आश्रित होने की भावना को विकसित किया तथा मुझे किसी भी चुनौती का सामना करने का हौसला प्रदान किया।
२. महिला विश्वविद्यालय में एक लड़की जितना आराम महसूस करती है,वह वो कहीं प्राप्त नहीं कर सकती है। क्यूंकि यहां मुझे ये महसूस नहीं होता है कि कोई मुझे देख रहा है या मेरी गतिविधियों पर नजर रख रहा है।
३. महिला विश्वविद्यालय में पढ़ने पर मुझे जीवन के दो मह्वपूर्ण सिद्धान्त आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का वास्तविक अर्थ समझ आया। सबसे बड़ी बात जो मैंने यहां से सीखी है वह है कुछ भी पहनने के लिए विश्वास।
४. यहां पढ़ने के बाद मुझे मेरे अधिकारों के प्रति जागरूक होने का अवसर मिला। यहां से मुझे मेरे विचारों को लोगों के सामने रखने की कला भी सीखने का मौका मिला।
५. चूंकि महिला विश्वविद्यालय में महिलों के लिए अन्य गतिविधियों के अवसरों की अधिकता होती है अतः मैंने अपनी पढ़ाई के साथ साथ अन्य गतिविधियों में भी अपने आप को संलग्न किया, क्यूंकि यहां मुझे संकोच की भावना से मुक्त होने का अवसर मिला।
यह आर्टिकल इंद्रप्रस्थ कॉलेज फॉर वीमेन की छात्रा स्नेहा अग्रवाल ने लिखा है
“ ढोल, गंवार , शूद्र , पशु ,नारी सकल ताड़ना के अधिकारी"
तुलसीदास जी की उपर्युक्त पंक्तियों से तो यही प्रतीत होता है कि प्राचीन काल से ही भारतीय स्त्री को हीनता की दृष्टि से देखा गया है तथा उसे ताड़ना का अधिकारी कहा गया है। अर्थात् उसे इस भेदाभाव का सामना प्राचीन काल से ही करना पड़ रहा है।
वर्तमान में भी लैंगिक असमानता समाज की एक ऐसी बुराई है, जिसका प्रभाव समाज के सिर्फ एक ही पक्ष पर देखा जाता है और उस उत्पीड़न का शिकार होने वाला पक्ष है - नारी। भारतीय समाज में नर तथा नारी को समाज रूपी गाड़ी के दो पहियों के रूप में कहा जाता है लेकिन यह वास्तविकता से बिल्कुल परे है। क्योंकि स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी हमारे समाज में नारी को वो सभी अधिकार नहीं मिले हैं जो उसे वास्तव में मिलना चाहिए। आज भी उसे अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। आज जीवन का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है जहां महिलाओं की भागदारी ना हो। शिक्षा, व्यापार, खेल, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में उनका योगदान उललेखनीय है। इसके बावजूद भी हमारे देश में अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहां लैंगिक भेदभाव आज भी दृष्टव्य है। जहां आज भी महिलाओं को हीनता की दृष्टि से देखा जाता है।
देश के अनेक क्षेत्रों में आज भी बेटी को बेटे के बराबर शिक्षा देने की बात कही जाती है, परन्तु उसे बेटे से अधिक शिक्षा देने की बात नहीं कही जाती। क्यूं? क्या वह बेटे से अधिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं रखती है? क्या वह बेटे से अधिक शिक्षा प्राप्त करने की क्षमता नहीं रखती है?
यातायात पुलिस में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना एक सराहनीय कदम है, लेकिन जब दो पहिया वाहन से निकलने वाला कोई आदमी जब उस महिला पुलिसकर्मी के शरीर के किसी अंग को स्पर्श करते हुए निकल जाता है तब यही कदम महिलाओं के लिए एक मजबूरी प्रतीत होता है।
राजनीति के क्षेत्र में भी महिला उम्मीदवार की नियुक्ति एक भ्रम प्रतीत होती है, क्योंकि इस पुरुष प्रधान समाज में मात्र नाम के लिए ही सत्ता उस महिला के हाथ में होती है, वास्तविक नियंत्रण तो उससे संबंधित पुरुष ( पिता या पति) का ही होता है।
उदाहरण के तौर पर, जैसा कि हम जानते हैं कि चुनावों का समय आने वाला है, जिसके कारण बड़ी बड़ी घोषणाएं दिन प्रतिदिन अखबारों में छपी होती हैं। दिल्ली डीटीसी बसों का किराया महिलाओं के लिए मुफ्त किया जाना उन्हीं घोषणाओं में से एक है। परंतु महिलाओं के लिए बसों का किराया मुफ्त करने से अधिक जरूरी बसों में उनकी सुरक्षा बढाना अधिक आवश्यक है।
इस प्रकार महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव समाज की दयनीय स्थिति को प्रदर्शित करते हैं। जब एक नारी जीवन के हर क्षेत्र में एक नर से कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है तो फिर उसे इस भेदभाव का सामना क्यूं करना पड़ रहा है? क्यूं आज भी देश के कुछ भागों में उसे एक बेटे से कम आंका जा रहा है? परन्तु अब वह इस भेदभाव से मुक्ति पाना चाहती है। इस पुरुष प्रधान समाज में वह भी अपनी एक पहचान बनाना चाहती है। अब वह मुक्त होना चाहती है समाज की इन बेड़ियों से। क्योंकि अब वह रोज के इस लैंगिक भेदभाव से आजाद होना चाहती है।
“विश्व ओलंपिक में जीता जिसने स्वर्ण पदक,
बन गई जो देश के लिए मिसाल।
फ़िर क्यूं ये भेदभाव नजर आता है,
जहां पी. वी. सिंधु जैसी बेटियां करतीं हैं।“
महिला विश्वविद्यालय में अध्ययन करने पर मुझे अनेक बातें सीखने का अवसर मिला, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं-
१. सबसे अधिक महत्वूर्ण बात जो मैंने महिला विश्वविद्यालय में पढ़कर सीखी है वह है स्वतंत्रता की भावना। क्यूंकि इसने मुझमें स्व आश्रित होने की भावना को विकसित किया तथा मुझे किसी भी चुनौती का सामना करने का हौसला प्रदान किया।
२. महिला विश्वविद्यालय में एक लड़की जितना आराम महसूस करती है,वह वो कहीं प्राप्त नहीं कर सकती है। क्यूंकि यहां मुझे ये महसूस नहीं होता है कि कोई मुझे देख रहा है या मेरी गतिविधियों पर नजर रख रहा है।
३. महिला विश्वविद्यालय में पढ़ने पर मुझे जीवन के दो मह्वपूर्ण सिद्धान्त आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का वास्तविक अर्थ समझ आया। सबसे बड़ी बात जो मैंने यहां से सीखी है वह है कुछ भी पहनने के लिए विश्वास।
४. यहां पढ़ने के बाद मुझे मेरे अधिकारों के प्रति जागरूक होने का अवसर मिला। यहां से मुझे मेरे विचारों को लोगों के सामने रखने की कला भी सीखने का मौका मिला।
५. चूंकि महिला विश्वविद्यालय में महिलों के लिए अन्य गतिविधियों के अवसरों की अधिकता होती है अतः मैंने अपनी पढ़ाई के साथ साथ अन्य गतिविधियों में भी अपने आप को संलग्न किया, क्यूंकि यहां मुझे संकोच की भावना से मुक्त होने का अवसर मिला।
यह आर्टिकल इंद्रप्रस्थ कॉलेज फॉर वीमेन की छात्रा स्नेहा अग्रवाल ने लिखा है