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मैं ही हमेशा चुप क्यों रहूँ?

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Swati Bundela
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नारी से लेकर हर व्यक्ति को अपनी बात खुलकर और बिना किसी डर के सामने रखने का पूर्ण संविधानिक अधिकार है, तो फिर सामजिक अधिकार आज तक पूर्ण रूप से क्यों नहीं दिया गया है?


लड़कियों को आज भी चुप रहने की सलाह दी जाती है और अगर वो इसे अस्वीकार करने का प्रयास करें तो यह सलाह ही आदेश बन जाती है। पारम्परिक रूप से और समाज के पुराने चलन के हिसाब से लड़कियों को हमेशा से ही चुप रखा गया है। हमे तब तक चुप रखा जाता है जब तक चुप रहना हमारी आदत न बन जाये। लेकिन अगर व्यावहारिक तरह से देखा जाये और गंभीरता से इस विषय पर चर्चा की जाये, तो यह साबित हो जायेगा की चुप्पी साधने से कुछ हासिल नहीं हो सकता। हाँ, या तो यूँ कह लीजिये की समाज यह बात जानता है की चुप्पी साधने से कुछ हासिल नहीं होगा और वह हमे कुछ हासिल करने भी नहीं देना चाहता। कारण जो भी हो, चुप रहना किसी गुणवत्ता के अंतर्गत नहीं आता।
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यदि हम चुप रहते हैं तो हम इसके साथ-साथ अपनी शक्तिहीनता का भी संकेत देते हैं। हमारा चुप रहना, कमज़ोरी बन जाता है और जब कोई नारी मानसिक रूप से कमज़ोर है तो उसमे आत्म-विश्वास भी संभवतः खतम ही हो जाता है। इसलिए, चुप रहना कोई ख़ास अनुभव नहीं है।


भले ही हमने आज तक अपने अधिकारों को लेकर समाज से स्पष्ट सवाल नहीं किये हैं, लेकिन अब वो वक़्त आ चुका है। हमारी पीड़ी किस्मत वाली है कि हमे अपनी आवाज़ को बुलंद करने के लिए सोशल मीडिया जैसे कई मंच भी मिले हैं। उदाहरण के तौर पर #metoo आंदोलन को ही ले लीजिये जो एक आंधी की तरह हमारे देश में आया था। बल्कि यूँ कहिये कि यह आंदोलन महिलाओं की उपलब्धियों का एक गवाह सा बन गया है। और यहाँ पर हमने लोगों से मिलकर यह सवाल पूछ ही लिया कि - मैं चुप क्यों रहूँ? और इसके साथ-साथ यह भी साबित कर दिया की यदि हम एकजुट हैं, तो समाज के पास हमारी चिंताएं सुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। #metoo ही नहीं, महिलाओं के अन्य आंदोलन भी महिलाओं को सशक्त करने का पूरा प्रयास कर रहें हैं।
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इन चीज़ों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो हमने काफी विकास कर लिया है। यह सच भी है लेकिन हमे साथ-साथ अपने इस विकास में रहने वाली कमियों को भी ध्यान में रखना होगा। जैसे की ज्यादार आंदोलन शहरी महिलाओं तक सीमित रहते हैं, जो एक चर्चा का महत्वपूर्ण विषय है। शहरी महिलाएं आज बाहर काम-काज पर जाती हैं, घूमती-फिरती हैं, पढाई करती हैं, लेकिन जो अनुसूचित जाति की नारियां हैं, गावों में रहने वाली महिलाएं हैं, उनका क्या? उन्हें आज भी यह प्रश्न परेशान करता है कि क्यों उनकी राय या उनका दृष्टिकोण एहम नहीं है। और शायद यह प्रश्न उन्हें अब ज्यादा खटकता नहीं, क्यूंकि वे इस वातावरण में स्वयं को पूरी तरह से ढाल चुकी हैं। लेकिन, बात युवा पीड़ी की है और आने वाली पीड़ी की है जो इन प्रश्नों का स्पष्ट जवाब चाहती है।

महिलाओं को अब एक पीड़ित की नज़र से नहीं बल्कि एक ताकतवर और प्रभावी व्यक्ति की तरह देखने की ज़रूरत है।

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आज महिलाओं के साथ हर दिन न जाने कितने अपराध होते हैं। इसका एक कारण यह कि वे चुप्पी साधना एक बेहतर विकल्प समझती हैं। उनकी इसी चुप्पी से अपराधियों को और ज्यादा और गंभीर अपराध करने की प्रेरणा मिलती है। लेकिन, समाज के रुख को बदलने का अब सही समय आ गया है। महिलाओं ने आज तक जो भी भुगता है, उसे जड़ से ख़त्म करने की आवश्यकता है।
#फेमिनिज्म भारत के सामाजिक मुद्दे #MeToo महिला और समाज #नारी
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