Daaker Saaj: माँ दुर्गा की प्रतिमाओं का पारंपरिक बंगाली श्रृंगार

"डाकर साज” बंगाल की पारंपरिक दुर्गा पूजा का विशेष श्रृंगार है, जिसमें माँ दुर्गा और उनके परिवार की प्रतिमाओं को चाँदी, सीक्विन्स और रंगीन सजावट से अद्वितीय रूप दिया जाता है, जो आस्था और कला दोनों का प्रतीक है।

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Deepika Aartthiya
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Photograph: (Featurezones)

नवरात्री का समय बंगाल के लोगों के लिए विशेष महत्व रखता है और इस दौरान होने वाली दुर्गा पूजा बंगाल की पहचान मानी जाती है। इस समय माँ दुर्गा की प्रतिमाओं का श्रृंगार श्रद्धालुओं का ध्यान आकर्षित करता है। वैसे तो अलग-अलग तरह के श्रृंगार से माँ को सजाया जाता है, लेकिन इनमें सबसे विशेष श्रृंगार है “डाकर साज”, जिसे आज भी कई पंडालों और पारंपरिक परिवारों में अपनाया जाता है।

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इस श्रृंगार में माँ दुर्गा और उनके परिवार की प्रतिमाओं को अद्वितीय और दिव्य रूप दिया जाता है। हर साल शारदीय नवरात्र में प्रतिमाओं का निर्माण और उनका यह श्रृंगार श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र बना रहता है।

Daaker saaj: माँ दुर्गा की प्रतिमाओं का पारंपरिक बंगाली श्रृंगार

डाकर साज की शुरुआत और नामकरण

“डाकर साज” नाम का संबंध सीधे ‘डाक’ यानी पोस्ट या मेल से है। ब्रिटिश काल के समय में भारत में ऐसी सजावट की सामग्री उपलब्ध नहीं थी। तब जर्मनी और यूरोप से चाँदी की पन्नियाँ, सीक्विन्स और चमकदार शीट्स मंगाई जाती थीं। यह सारा सामान डाक के ज़रिए आता था और इसी वजह से इसका नाम “डाकर साज” पड़ा। इसके बाद से यह परंपरा बंगाल की सांस्कृतिक धरोहर बन गई।

क्यों है खास?

डाकर साज श्रृंगार में देवी की प्रतिमाओं को silver foils, sequins, metallic papers, colorful cuttings और पतले कागज़ से सजाया जाता है। रात में जब रोशनी इन साज सजावटों पर पड़ती है, तो पूरा पंडाल दिव्य आभा से चमक उठता है। माँ दुर्गा के मुकुट, हार, कर्णफूल और शस्त्र भी इन्हीं सामग्रियों से बनाए जाते हैं। पहले केवल चाँदी का use होता था, लेकिन अब रंगीन कागज़ और ग्लिटर शीट्स का भी use किया जाता है ताकि यह और आकर्षक लगे।

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आस्था और प्रतीकात्मकता

यह श्रृंगार केवल सुंदरता का प्रतीक नहीं, बल्कि माँ की शक्ति, समृद्धि और भव्यता का प्रतीक भी माना जाता है। श्रद्धालु पंडाल में प्रवेश करते ही डाकर साज वाली प्रतिमा से एक दिव्य और आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करते हैं।

कारीगरों की परंपरा और मेहनत

डाकर साज श्रृंगार को पारंपरिक कारीगर परिवारों द्वारा बनाया जाता है। जो इस परम्परा को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाते आ रहे है। महीन कटिंग और पैटर्न तकनीक से यह श्रृंगार तैयार होता है। इसके लिए महीनों की मेहनत, धैर्य और कौशल की आवश्यकता होती है। हर पैटर्न अलग होता है, जिससे कारीगरों की creativity और परंपरा झलकती है।

आधुनिक समय में डाकर साज

आज थीम-आधारित पंडालों और modern decor का चलन बढ़ गया है, लेकिन डाकर साज का आकर्षण अभी भी बरकरार है। कई पूजा समितियाँ और पारंपरिक परिवार इसे अपनाकर पूजा में प्राचीनता और देवी के दिव्य स्वरूप का संगम बनाए रखते हैं। यही कारण है कि डाकर साज केवल सजावट नहीं, बल्कि बंगाल की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान का जीवंत प्रतीक है।

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