कभी घर-परिवार से तो कभी आस-पड़ोस से।हमारे पितृसत्ताक समाज में महिलाओं को हर तरीके से बंधन में रखने की कोशिश की जाती है। महिलाओं को कैसे व्यवहार करना चाहिए, कैसे बोलना चाहिए, क्या पहनना चाहिए,यह सब हमारा समाज कंट्रोल करता है। लेकिन इस सबके पीछे तर्क 'महिलाओं की भलाई' ही दिया जाता है। हम बचपन से ही लड़कियो को सिखाते हैं कि उन्हें उनका व्यवहार और पहनावा अगर एक तय पैमाने का नही होगा तो वो समाज के मुताबिक संस्कारी लड़कियो की परिभाषा में नही आता है।
लड़की से ज्यादा प्यारी होती है इज़्ज़त
हमारे समाज को सबसे ज्यादा घर - परिवार की इज्ज़त प्यारी होती है। यह इज्जत घर की महिलाएं और पुरुषो के द्वारा आती है। पुरुषों के मामले में अगर वे अच्छा खाते - कमाते हैं तो इज्जतदार हैं, वहीं महिलाओं के लिए यह एकदम विपरीत हैं। महिलाएं अगर देर रात घर से बाहर ना जाए, पूरे शरीर को ढकने वाले कपड़े पहने, और बड़ो के बीच बात न करे, तब ही उन्हें परिवार के लिए सम्मान के रूप में देखा जाता है।
महिलाओं के कपड़े हमेशा हुए टारगेट
वहीं महिलाओं के कपड़े समाज के लिए हमेशा से एक बड़ी बहस का मुद्दा रहे हैं। जब भी महिलाओं के साथ कही भी रेप या छेडछाड जैसी अभद्रता दर्ज होती है तो सबसे पहले सवाल पीड़िता के कपड़ो पर किया जाता है। ऐसा करके हमारा समाज महिलाओं को ही उनके साथ होने वाली अभद्रता के लिए जिम्मेदार ठहराता है। यहाँ तक की हमारे स्कूल तक लड़कियों को बहुत छोटी उम्र में खुदको यौन रूप से समझने पर मजबूर करते हैं। उनको एहसास कराया जाता है कि उनका पहनावा छात्रों को उत्तेजित कर सकता हैं। यह हमारे समाज का एक तरीका है महिलाओं को सुरक्षित करने का भ्रम देकर उन्हें कंट्रोल करने का।
महिलाओं की इक्षा को हमेशा दबाया गया
पहनावे का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। महिलाओं को उनकी इच्छा के अनुसार तैयार होने का पूर्ण अधिकार है। उन्होने क्या कपडा पहना हुआ है यह उनका चरित्र परिभाषित नही करता है, ना ही उनके कपड़े आपको उनके साथ कोई अभद्रता करने का लाइसेंस देते हैं। महिलाओं के कपड़े नही अपितु आपको और इस समाज को अपनी सोच बदलने की बहुत आवश्यकता है।