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यह सच है कि जब प्रियंका गाँधी को इंदिरा गाँधी के साथ एक तराज़ू में बैठाकर देखा जायेगा, तो जाहिर है लोगों की उम्मीदें और आशाएं उनसे बढ़ेंगी ही। लेकिन इस नाप-तोल का प्रियंका पर काफी असर पड़ना संभव है।
मीडिया से लेकर हर राजनैतिक पार्टी इसी चर्चा में लुप्त है। कोई उनकी खूबसूरती की चर्चा कर रहा है तो कोई उनके भाषा कौशल की। लेकिन सबसे एहम चीज़ है उनकी इंदिरा गाँधी से तुलना।
प्रियंका को इस समय देश एक नेता के रूप में कम और एक इंदिरा गाँधी की परछाई के रूप में ज्यादा देखा जा रहा है। इन सब चीज़ों के चलते प्रियंका पर अपनी दादी की विरासत को आगे ले जाने का भार ज्यादा है और अपने खुद के कौशल को दिखाने का अवसर कम है।
अगर बात राजनैतिक पार्टियों की हो तो सत्ताधारी भाजपा पार्टी और उनके अन्य समर्थक इसे परिवारवाद का खेल बता रहे हैं। यहां तक की वे यह भी कह रहे हैं कि कांग्रेस के पास इस बार कोई अच्छा नेता नहीं है इसलिए वे खूबसूरती का सहारा लेकर महिलाओं को चुनावी मैदान में उतारने का प्रयास कर रहें है।
अगर इस बात को हम इस कोण से देखें तो हमे यह पता चलेगा कि राजनीति में महिलाओं को किस तरह से वस्तुगत किया जाता है। पहले उनकी तुलना, उसके बाद परिवारवाद को लेकर आक्रमण, और कुछ नहीं तो खूबसूरती और राजनीति का एक स्वतः निर्माण मिश्रण।
बात सिर्फ यहीं खतम नहीं होती है। हाल ही में अभिनेत्री करीना कपूर खान को भोपाल के चुनावी क्षेत्र से चुनाव लड़ाने की बात सामने आयी थी। इस बात पर भी कुछ ऐसी ही टिप्पड़ियां की गयीं थीं। क्या विचार है आपका?
अब सबसे एहम बात यह है कि प्रियंका गाँधी को हमे एक मौका खुद का प्रतिनितिध्व करने का भी देना चाहिए। उनकी तुलना करना कहीं न कहीं एक अपमान जैसा है जिसके चलते वे सिर्फ एक बोझ की तरह ही राजनीति को स्वीकार कर पाएंगी। दूसरी तरफ से देखें, तो हो सकता है प्रियंका को इसका भरपूर फायदा भी हो। लेकिन, तुलना करके हम उनका मूल्यांकन सही ढंग से नहीं कर रहें हैं। और शायद उनकी बुद्धिमता और कौशल को कम आंक रहे हैं।