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रुक्मिणी देवी, एक आदिवासी महिला से मिलें जिन्होंने सरपंच बनने के लिए मुश्किलों का सामना किया

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Swati Bundela
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कितना मुश्किल है एक अकेली महिला के लिए एक टूटी हुई शादी से निकलकर अपनी 2  बेटियों की परवरिश करना ? और तो और उनकी एक बेटी विकलांग है। इन सभी चुनौतियों को झेलकर वह अपने  गाँव की नेता के रूप में सामने आई है । आज हम आपको शीदपीपल टी वी पर एक आदिवासी महिला रुक्मिणी देवी की कहानी बतानेवाले है जो एक सोशल और लीगल राइट्स एक्टिविस्ट है, वह अपने  गाँव की पूर्व सरपंच भी रह चुकी है (2006-2011 के बीच) और गुजरात में महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाती है।

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गाँव में शादी छोड़ने के बाद का जीवन



रुक्मिणी 15 या 16 साल की थीं, जब उन्होंने गुजरात के सूरत जिले के मांगरोल तालुका में भड़कुवा के अपने गाँव के पास एक दिहाड़ी मजदूर से शादी कर ली। आर्थिक रूप से गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाली रुक्मिणी ज्यादा पढ़ाई नहीं कर पाई और कम उम्र में ही सामाजिक दबाव और धन की कमी के कारण उनकी शादी कर दी गईं। लेकिन उनकी शादी उनकी उम्म्मीदों के मुताबिक नहीं निकली। उनका पति एक दोखेबाज़ था जो हर दूसरी औरत के साथ सम्बन्ध बनाना चाहता था । “वह एक मजदूर था इसलिए जब भी वह काम करने के लिए बाहर जाता तो वह अन्य महिलाओं का पीछा करती। मैंने उनसे कई बार बात करने की कोशिश की लेकिन जब मुझे महसूस हुआ कि वह कभी नहीं बदलेगा तो मैंने उसे छोड़ दिया और अपनी बेटियों को लेकर अपने माता -पिता के घर आ गई । ”

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रुक्मिणी 24 साल की थी जब वह अपनी दो बेटियों के साथ अपने माता-पिता के घर वापस आई। उनकी छोटी बेटी केवल एक साल की थी जब वह अपने माता -पिता के घर लौट वापस आई और उनकी बेटी सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित थी। उनकी दुर्दशा देखकर भी समाज के लोग ताना मारने से नहीं रुके और वह कहती है कि वर्षों तक उन्होंने  खुद को सार्वजनिक रूप से बाहर जाने से रोका। “अगर मैं काम करने के लिए बाहर जाती  तो लोग मेरे सामने मेरे बारे में बात करते । मुझे मेरे बारे में बहुत सी बातें सुननी पड़ीं और वे बहुत भयानक दिन थे। लेकिन अगर मई उनकी बातें अपने दिल को लगा लेती तो मैं अपनी बेटियों की परवरिश करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। इसलिए, मैं यह सब सुनती थी और काम पर निकल जाती थी। और मेरी उम्र भी कुछ ज़्यादा नहीं थी, मैंने यह सब कुछ सहा, ”वह याद करती है।



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एक नयी शुरुआत

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वह खेत के काम, अपने घर में योगदान देने और सिंगल महिलाओं के साथ काम करने के बीच में जूझती थीं, जो टूट हुई शादी से निकलकर आयी  थीं या उन्हें छोड़ दिया गया था आदि।



उन्होंने अन्य लोगों के खेतों में मामूली पैसों के लिए एक मजदूर के रूप में खेती शुरू की। जल्द ही, उन्होंने  कानून और मानवाधिकारों के लिए एक एनजीओ के बारे में सुना जहां उन्होंने खुद लॉ के कोर्स में दाखिला लिया। “उन्होंने मुझे बताया कि एफआईआर क्या होती है और महिलाओं के लिए अन्य बुनियादी नियम और अधिकार जो हमारे लिए सुलभ हैं। उन्होंने मुझे कुछ आशा दी कि मैं एनजीओ और लोगों के साथ अपने जीवन और अन्य लोगों के जीवन में कुछ बदलाव लाने के लिए काम कर सकती हूं। यह वर्ष 1998 के आसपास की बात थी। ”
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सरपंच बनने का संघर्ष



रुक्मिणी ने कभी भी अपने गाँव के सरपंच के पद के लिए चुनाव लड़ने के बारे में नहीं सोचा था, लेकिन बहुत से लोगों ने रुक्मिणी को उनके  पति को छोड़कर अपने माता-पिता के घर लौटने के लिए उसकी इज़्ज़त करते थे, उन्होंने उन्हें चुनाव लड़ने का एक उद्देश्य दिया। 2001 में अपने पहले प्रयास में, उन्हें कुल 1067 वोटों में से केवल 25 वोट मिले, लेकिन इस वजह से उनकी भावना कम नहीं हुई। रुक्मिणी याद करते हुए कहती है "लोगों ने मेरा नाम इलेक्शन में देने के लिए मेरा मज़ाक उड़ाया और इसी चीज़ ने मुझे चुनाव लड़ने की मेरी इच्छा को कॉन्फिडेंस  दिलाया।"
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फिर 2006 में, जब चुनाव फिर से आए, तो वह अपने गांव के सात वार्डों से अपने लोगों को चुनने की प्रक्रिया शुरू करने वाली पहली महिला थीं। “लोग मेरी उम्मीदवारी के बारे में अनिश्चित थे। उन्हें मुझ पर ज्यादा भरोसा नहीं था, लेकिन कुछ लोगों ने मेरा समर्थन किया क्योंकि उन्हें लगा कि कम से कम ऐसा करने से उन्हें कोई नुकसान नहीं होगा। शुरुआत में, जब मैं अपना नामांकन पत्र दाखिल कर रही थी , तब मेरे खिलाफ कोई और नामांकन दाखिल नहीं हुआ था। लोगों ने सोचा कि मैं बिना किसी विरोध के चुनाव जीत सकती हूं, इसलिए उन्हें मेरे खिलाफ लड़ने और मुझे डराने के लिए मेरे खिलाफ फारेस्ट चीफ कन्सेर्वटोर के बेटे को खड़ा किया।

जीत का दिन



इलेक्शन के दिन, उन्होंने अपना वोट डाला लेकिन उन्हें उस जगह पर नहीं रहने दिया गया। उन्हें यह भी पता चला कि ऑप्पोजीशन ने उनके  वार्ड सदस्यों को तोड़ने की कोशिश की थी जिन्हे उन्होंने चुना था इसलिए उन्होंने सोचा कि वह हारने वाली है। "हालांकि कुछ गाँव के सदस्यों ने मुझे बताया कि ऑप्पोजीशन ने जो किया था, उसके बावजूद उन्होंने मुझे वोट दिया था, मैं वोटों की गिनती के लिए जाना नहीं चाहती थी, बहुत सोचने के बाद, मैंने जाने का फैसला किया।



वोटों की गिनती के दिन, मैं एक रिश्तेदार के साथ वहां गयी थी। कुछ समय बीत गया और हमें पता चला कि दोनों पार्टियों के लिए मतदान एक ही संख्या के आसपास थी । जैसे ही काउंटिंग खत्म हुई, मैं एक वोट से जीत गयी थी । लेकिन दूसरे पक्ष ने विद्रोह किया और दूसरे दौर के मतदान के लिए कहा । उस दौर में, मैंने दो वोटों से जीत हासिल की, “रुक्मिणी मुस्कुराती हैं क्योंकि वह घटना के दिन को याद करती हैं।
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