भारत में अक्सर माताओं को अपनी बेटियों के लिए 'उम्र में बड़े' और 'उचित' वर की तलाश में बात करते सुना जाता है। इसी सोच का असर भारत की कानूनी व्यवस्था पर भी देखा जा सकता है, जहां महिलाओं के लिए विवाह की उम्र 18 और पुरुषों के लिए 21 वर्ष निर्धारित की गई है। यह क्या एक 'व्यावहारिक' कदम है, या फिर सदियों से चली आ रही पितृसत्तात्मक सोच का असर?
इलाहाबाद हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: विवाह में आयु अंतर पर उठाए सवाल
इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह और डोनाडी रमेश ने एक केस पर सुनवाई करते हुए विवाह की आयु को लेकर टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा, "विवाह में पुरुषों के उम्र में बड़ा होने की धारणा, एक पुरानी पितृसत्तात्मक सोच को दर्शाती है, जो यह मानती है कि महिलाएं किसी भी उम्र में सुरक्षा या परिपक्वता की आवश्यकता रखती हैं।"
आयु अंतर: क्या यह पितृसत्ता की चाल है?
कानूनी व्यवस्था में पुरुषों को वित्तीय संरक्षक माना गया है, जिससे विवाह में उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत समझा जाता है। इस सोच के कारण, बहुत से परिवार अपनी बेटियों की शिक्षा में निवेश करने से कतराते हैं, यह सोचते हुए कि उनके भविष्य का दायित्व उनके पति पर है। ऐसी मानसिकता महिला सशक्तिकरण और शिक्षा को भी हतोत्साहित करती है।
अन्य देशों की विवाह आयु पर एक नजर
भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में महिलाओं के लिए विवाह की न्यूनतम उम्र 18 और पुरुषों के लिए 21 वर्ष है। जबकि चीन में यह उम्र महिलाओं के लिए 20 और पुरुषों के लिए 22 वर्ष है। परंतु फ्रांस, दक्षिण अफ्रीका और जापान जैसे देशों में विवाह की न्यूनतम आयु में कोई भेदभाव नहीं है, जिससे यह दर्शाता है कि वे लिंग समानता को महत्व देते हैं।
समान विवाह आयु के लिए पिछला प्रयास
2023 में, एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय ने महिलाओं और पुरुषों के लिए समान विवाह आयु की याचिका दायर की थी। उनका तर्क था कि अलग-अलग आयु की सीमाएं पितृसत्तात्मक सोच पर आधारित हैं और यह समानता, गरिमा, और भेदभाव-रहित अधिकारों का उल्लंघन करती हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इसे संसद के हस्तक्षेप की आवश्यकता बताते हुए खारिज कर दिया।
इस फैसले से एक बात स्पष्ट होती है कि विवाह की आयु पर समाज को पुनर्विचार करना चाहिए ताकि सभी को समानता का अधिकार मिल सके।