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एक पिता का त्याग: बेटी के खोने का ग़म बदल गया 600 बच्चों की खुशी में

बेंगलुरु के ASI लोकेशप्पा डी ने बेटी को खोने के ग़म को सकारात्मकता में बदला। वे हर साल 2 महीने का वेतन गरीब बच्चों की शिक्षा में लगाते हैं। जानिए उनकी कहानी और पत्नी के NGO बनाने के बारे में

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Vaishali Garg
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एक पिता का त्याग: बेटी के खोने का ग़म बदल गया 600 बच्चों की खुशी में

Image Credit: The New Indian Express

A Father's Sacrifice: Daughter's Loss Transformed into Joy for 600 Children: बेंगलुरु के एक पुलिस अधिकारी लोकेशप्पा डी हमें यह दिखा रहे हैं कि दुःख से कैसे उबरा जा सकता है और सकारात्मक कदम उठाकर दिवंगत को श्रद्धांजलि दी जा सकती है। अपनी लाडली बेटी को खोने के गहरे सदमे से जूझ रहे लोकेशप्पा डी अपने दुःख को एक सार्थक पहल में बदल रहे हैं। वह हर साल अपने दो महीने का वेतन कक्षा 1 से 8 तक के 600 छात्रों की शिक्षा में मदद करने के लिए दान करते हैं। 

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एक पिता का त्याग: बेटी के खोने का ग़म बदल गया 600 बच्चों की खुशी में

बेटी के खोने का गहरा आघात

रिपोर्ट्स के अनुसार, मार्च 2019 में लोकेशप्पा डी ने अपनी तीन साल की बेटी हर्षाली को आग से लगीं गंभीर चोटों के कारण खो दिया था। शिवाजीनगर में पुलिस क्वार्टरों में लगी आग के कारण हर्षाली झुलस गई थीं।

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हादसे का दिन

5 मार्च को लोकेशप्पा को उनकी पत्नी सुधा मणि का फोन आया। सुधा मणि ने बताया कि आग लगने से उनकी बेटी झुलस गई है। उस समय लोकेशप्पा कुब्बोन पार्क ट्रैफिक पुलिस स्टेशन में हेड कॉन्स्टेबल के पद पर तैनात थे। हर्षाली को तुरंत विक्टोरिया अस्पताल ले जाया गया, जहां 13 मार्च तक उसका इलाज चला। आठ दिनों तक संघर्ष करने के बाद हर्षाली ने दम तोड़ दिया।

दुःख में उम्मीद की किरण

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लोकेशप्पा और सुधा मणि अपनी इकलौती बेटी के निधन के ग़म से उबर नहीं पाए। हर्षाली को रंगीन किताबें बहुत पसंद थीं। लोकेशप्पा ने अपने दुःख से निपटने का एक रास्ता ढूंढ लिया। उन्होंने अपनी कमाई का आधा हिस्सा दूरदराज के इलाकों के छात्रों की मदद के लिए देने का फैसला किया। जो पैसा वह हर्षाली की शिक्षा पर खर्च करते, अब उसका उपयोग 600 बच्चों की शिक्षा में हो रहा है।

निरंतर समर्पण

उस दुखद घटना को कई साल बीत चुके हैं। लोकेशप्पा अब शिवाजीनगर महिला पुलिस स्टेशन में असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर हैं। लेकिन बच्चों की मदद करने का उनका संकल्प नहीं बदला है। वह हर साल अपने दो महीने का वेतन वंचित छात्रों को स्कूल की आवश्यक सामग्री उपलब्ध कराने के लिए दान करते हैं। उन्होंने एक स्कूल से शुरू किया था और अब वह छह स्कूलों को गोद ले चुके हैं। इनमें से एक बेंगलुरु के कोडिघल्ली में है, जहाँ वह 200 छात्रों की मदद कर रहे हैं। दूसरा मैसूर में है और चार उनके पैतृक क्षेत्र हासन में हैं। कुल मिलाकर, वह 600 छात्रों की शिक्षा में सहयोग कर रहे हैं।

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ग्रामीण इलाकों में शिक्षा की दुर्दशा

लोकेशप्पा का कहना है कि ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों की शिक्षा को अक्सर कम आंका जाता है। बच्चे सिर्फ मिड-डे मील के लिए स्कूल जाते हैं। उन्होंने आगे कहा कि कई माता-पिता आर्थिक रूप से अपने बच्चों के लिए आवश्यक चीजें खरीदने में सक्षम होते हैं। फिर भी, वे किताबें, पेंसिल, नोटबुक और पेन जैसे संसाधन उपलब्ध न कराने के लिए सरकार को दोष देते हैं। माता-पिता का मानना है कि अगर सरकार किताबें उपलब्ध कराने में सक्षम है, तो उसे छात्रों को अन्य आवश्यक चीजें भी मुहैया करवानी चाहिए। लोकेशप्पा ने दूरदराज के उन क्षेत्रों के स्कूलों की मदद करने का फैसला किया जहां संसाधनों की कमी के कारण छात्रों के स्कूल छोड़ने का खतरा बहुत ज़्यादा होता है।

शिक्षा के लिए समर्पित परिवार

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हर्षाली की माँ सुधा मणि भी इस साल अपनी बेटी के नाम पर एक NGO - हर्षाली फाउंडेशन - शुरू कर देंगी। उनका लक्ष्य दूरदराज के इलाकों और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के बच्चों को मुफ्त किताबें और स्टेशनरी उपलब्ध कराना है। उनका NGO अभी पंजीकृत नहीं है।

लोकेशप्पा डी और सुधा मणि का ये त्याग और समर्पण न सिर्फ सराहनीय है बल्कि दूसरों को भी प्रेरणा देता है। उन्होंने यह दिखाया है कि कैसे व्यक्तिगत त्रासदी को सकारात्मक बदलाव में बदला जा सकता है।

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