हम लोग शहरों में रहते हैं. हमारा जीवन बहुत आसान है. हम भारत की वास्तविकता से बहुत दूर हैं. हममें में से ऐसे कहीं लोग हैं जो गांव में जाकर गरीब बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं परन्तु हममे से कितने लोग ऐसा करते हैं?
बृंदा बैंगलोर में रहती है और केपीएमजी के लिए काम करती हैं. परंतु वह कुछ सामाजिक कार्य करने के लिए भी समय निकाल लेती थी कॉलेज खत्म होने के बाद उन्होंने 3 साल काम किया और गरीब बच्चों की मदद करने के लिए पैसे बचाएं. उनको नहीं पता था कि वह कहां से शुरू करें और तब उनको उनके दोस्तों ने स.बी.आई द्वारा शुरु की गई फेलोशिप प्रोग्राम के बारे में बताया जो 200 लोगों को गांव में जाने के लिए स्पॉन्सर करती है.
उन्होंने राजस्थान में एक महीना बिताया उसके बाद वह पिथोरागढ़ नाम के एक गांव में गई. यह गांव नेपाल चीन बॉर्डर के पास है. वहां तक पहुंचना अपने आप में एक बहुत बड़ी चुनौती थी.
पिथौरागढ़ में बिताया 1 साल
यहां उन्होंने अलग-अलग गांव में समय बिताया और वहां पर रहने वाले लोगों से महिला सशक्ति और मेंस्ट्रुअल हाइजीन के बारे में बात करि. वहां के लोगों से बात करने पर उन्हें पता चला कि महिलाओं को अपने पीरियड के दौरान गौशाला में रहना पड़ता था. इतना ही नहीं उन्हें गोमूत्र भी पीना पड़ता था जिससे वह शुद्ध हो जाएं.
बृंदा ने फिर उस गांव में एक छोटा सा सर्वे किया और उसे मालूम पड़ा कि 80% लोगों को लगता था कि पीरियड्स होना भगवान का अभिशाप था. उन्हें मेंस्ट्रुएशन के विषय में बिल्कुल ज्ञान नहीं था.
जब भी उस गांव में बारिश न होती या तेंदुआ किसी पर हमला करता था, तो ऐसा माना जाता था की इसका कारण महिलाएं हैं क्यूंकि वह मेंस्ट्रुअल रूल्स को अपनी जीवन में लागू नहीं करती.
बृंदा ने गांव में जागरूकता फैलाने की जिम्मेदारी खुद पर ली.
वे स्कूलों में और बच्चों से पीरियड्स के बारे में बात करने लगी. उनके सेशंस लगभग ३ घंटे चलते थे. वहां की लड़कियों के लिए पीरियड्स के बारें में बात करना मुश्किल था परन्तु वह इस प्रकार की एक्टिविटीज करवाती थी जिससे उन लड़कियों को ज्ञान मिले. वह चाहती थी की उन लड़कियों को एक ऐसा सुरक्षित स्थान मिले जहाँ वह अपनी चिंताओं के विषय में खुल कर बात कर सके. बृंदा ने कहा,"मैं उनको इस विषय में किसी से बात करने की आज़ादी देना चाहती थी. उन्होंने इसमें सफलता प्राप्त कर ली थी. मुझे अभी भी उन लड़कियों का फ़ोन आता है जिससे मुझे आभास होता है की मेरी बातों का उनपर सही प्रभाव पड़ा है.
बृंदा बूढ़ी महिलाओं के लिए भी सेशंस रखती थी जहाँ वह एनएमईआ और अन्य बीमारियों के विषय में बात करती थी.
महिलाओं के लिए रोज़ी रोटी का प्रबंध करना
महिलाओं और लड़कियों को जागरूक करने के बाद, उन्होंने वहां की महिलाओं को सस्टेनेबल क्लॉथ पैड्स बनाने सिखाये जिससे वह अपनी मेंस्ट्रुअल हाइजीन का भी ध्यान रख सके और अपनी आजीविका भी अर्जित कर सके.
अवनि नाम के एक न.जी.ओ ने बृंदा की पैड्स को आस पास के गांव में पहुँचाने में मदद करी. इन गावों में इन पैड्स की प्रोडक्शन और सेल्स का काम अभी भी जारी है.
इन कपड़े के बने पैड्स के उत्पादन ने इन महिलाओं को ३ ज़रूरी बातें सिखाई. यह पैड्स इस्तेमाल करने में आसान थे, हाइजीनिक थे और इनको बनाने से महिलाओं को रोजी रोटी भी मिलती थी.
बृंदा ने बहुत ही साहसिक कदम उठाया. उन्हें हमें कहा की वह यह दोबारा अवश्य करना चाहेंगी. उन्हें उम्मीद है की उनकी कहानी से अनेक लोगों को ऐसा काम करने की प्रेरणा मिलेगी. वह चाहती हैं की हमारे देश के शिक्षित युवा अवश्य ही कुछ ऐसा करें क्यूंकि इससे केवल युवाओं के जीवन में ही नहीं बल्कि उन लोगों के जीवन में भी परिवर्तन आएगा जिनके लिए वे काम कर रहे हैं.