हम सब इस बात को समझते हैं कि भारतीय शिक्षा प्रणाली को बदलाव की जरूरत है. भारत में अच्छी अध्यापिकाओं की कमी है क्योंकि यह काम ज्यादातर लोगों को आकर्षित नहीं करता. भारत में अध्यापिकाओं को बहुत कम वेतन दिया जाता है जो इस तेजी से बदलते समाज में पर्याप्त नहीं है.
परंतु ऐसे भी बहुत से लोग हैं जो केवल पढ़ाने के अपने जुनून के लिए अध्यापक अध्यापिकाएं बनते हैं."टीच फॉर इंडिया" जो भारतियों को ऐसा ही एक अवसर देता है जिसमें आप को गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए भारत के दूरदराज इलाकों में जाना पड़ता है.
मुझे पता था कि मैं सबसे अच्छे तरीके से शिक्षा को तब समझ पाऊंगी, जब मैं खुद कक्षा में जाऊंगी.
31 वर्षीय नबीला काज़मी ,बेंगलुरु में कॉरपोरेट की नौकरी कर रही थी, परंतु अंदर से उन्हें वह प्रसन्नता महसूस नहीं हो रही थी. नौकरी के दौरान ही उनको कदेश चिल्ड्रंस होम में वॉलिंटियर की तरह काम करने का अवसर मिला और तब उन्हें इस बात का आभास हुआ कि वह इसी क्षेत्र में काम करना चाहती हैं.
उन्होंने हमें बताया कि अध्यापिका बनना उनकी पहली पसंद नहीं थी. " मैं अवास्तविक शिक्षा प्रणाली से आई थी, जिसके कारण यह सेक्टर मुझे आकर्षित कर रहा था."
नबीला को लगता है कि वह शुरुआत से ही अपने करियर को लेकर बहुत उलझन में रही है. " इंजीनियरिंग के बाद एमटेक, उसके बाद एम्.ऐ और अब पीएचडी के ऑप्शंस ढूंढने के विषय में मुझे अपने बारे में यह पता चला कि मैं अभी भी प्रेरणा ढूंढ रही हूं. वैसे तो अब मैं शिक्षा और शिक्षा से संबंधित क्षेत्रों में ही काम करना चाहती हूँ"
एक कक्षा में रहने से आपको शिक्षा, छात्रों के परिप्रेक्ष्य और स्वयं के विषय में भी बहुत कुछ पता चलता है. नबीला कहती हैं, "सबसे सकारात्मक परिणाम वह होता है जब मुझे सबसे प्रभावशाली दिमाग सरलता भरे दिल रखने वाले छात्रों से सीखने को मिलता है. बच्चों का दिमाग और दिल प्रदूषित नहीं होता है और इससे मुझे बहुत प्रेरणा मिलती है."
नवेला ने अरुणाचल प्रदेश के एक विद्यालय में विज्ञान की अध्यापिका के रूप में 2016 और 2017 में पढ़ाया. वहां पर उन्होंने झमस्ते हस्टल चिल्ड्रंस कम्यूनिटी के साथ काम किया और बच्चों को वह ज्ञान दिया जो उनको अपने बाद के जीवन में काम आएगा.
एक और बहुत जरूरी चीज जो मैंने सीखी थी कि हमें जजमेंटल नहीं होना चाहिए क्योंकि उसके कारण हमारा मन कुछ भी अलग स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं रहता. एक अध्यापिका की कक्षा में भिन्न-भिन्न भांति के छात्र होते हैं और यह सीख बहुत काम आती है.
उन्होंने कहा कि यह अनिवार्य है कि हम बच्चों के विचारों को स्वीकार करें. "मैं छात्रों से सीखने के लिए भी तत्पर रहती थी और यह मेरे लिए बहुत सहायक रहा है. हम उन छात्रों से कक्षा के बाहर भी जुड़ सकते हैं जिससे उनको स्वयं को व्यक्त करने की आजादी मिले. एक और बहुत जरूरी चीज जो मैंने सीखी थी कि हमें जजमेंटल नहीं होना चाहिए क्योंकि उसके कारण हमारा मन कुछ भी अलग स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं रहता. एक अध्यापिका की कक्षा में भिन्न-भिन्न भांति के छात्र होते हैं और यह सीख बहुत काम आती है.
भारतीय शिक्षा प्रणाली को बहुत से बदलाव की जरूरत है,परंतु जब तक नबीला जैसी अध्यापिकाएं भारत में है तब तक भारत का भविष्य उज्जवल है. हम आशा करते हैं कि युवा पीढ़ी शिक्षण में रूचि दिखाएगी और इन बच्चों के सामाजिक - आर्थिक पृष्ठभूमि पर ध्यान न देकर उनको उनकी क्षमता तक पहुंचाने में मदद करेगी.