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Girls & Discrimination: क्यों लड़कों के खाने बनाने को ख़ास और लड़कियों के खाना बनाने को आम समझा जाता है?

लड़कियां अक्सर समाज में भेदभाव का शिकार बनती हैं। क्योंकि बचपन से हो उन्हें घर के काम सिखाए जाते हैं और लड़कों को बाहर की चीजें सिखाई जाती हैं और फिर एक टाइम आता है जब सबको लड़कियों के काम फर्ज से ज्यादा कुछ लगते ही नही हैं।

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Priya Singh
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Girls & Discrimination

Girls & Discrimination: लड़कियां अक्सर समाज में भेदभाव का शिकार बनती हैं। क्योंकि बचपन से हो उन्हें घर के काम सिखाए जाते हैं और लड़कों को बाहर की चीजें सिखाई जाती हैं और फिर एक टाइम आता है जब सबको लड़कियों के काम फर्ज से ज्यादा कुछ लगते ही नही हैं। हमारा समाज ऐसा ही है यहाँ अगर लड़का कोई भी घर का काम करता है तो उसकी सराहना की जाती है जबकि लड़की करती है तो यह उसका फर्ज है कहकर टाल दिया जाता है। खाना बनानेको लेकर एक अजीब भेदभाव हमारे समाज का हिस्सा बना हुआ है जहाँ बचपन से ही लड़कियों को घर में खाना बनाना सिखा दिया जाता है। लेकिन लड़कों को ऐसा नही सिखाया जाता है और फिर लड़कियां जीवन भर खाना बनाती हैं तब भी उन्हें किसी तरह की शाबासी नही दी जाती जबकि लड़का बनाए तो हर किसी को लगता है वो अरे वाह वो खाना बना लेता है। आखिर ऐसा क्यों है?

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क्यों लड़कों के खाने बनाने को ख़ास और लड़कियों के खाना बनाने को आम समझा जाता है?

(Discrimination Between Girls And Boys Regarding Cooking)

सामाजिक मानदंडों और अपेक्षाओं की उलझन में, लड़कियां अक्सर खुद को भेदभाव के जाल में उलझा हुआ पाती हैं, खासकर जब खाना बनाने जैसे सांसारिक कामों की बात आती है। यह वाक्य "लड़का खाना बनाए तो वाह लड़की खाना बनाए तो उसकी फर्ज है" हमारे समाज में प्रचलित एक कठोर वास्तविकता को व्यक्त करता है। पारंपरिक रूप से महिलाओं से जुड़ा खाना बनाने का काम लड़कियों की पसंद के बजाय एक कर्तव्य के रूप में समाज के ताने-बाने में शामिल हो गया है। जबकि खाना पकाने वाले लड़के की स्किल्स या असाधारण विशेषता के रूप में प्रशंसा की जा सकती है, लड़की द्वारा किया गया वही कार्य अक्सर एक दायित्व, उसकी अपेक्षित भूमिका की पूर्ति मात्र माना जाता है। यह मानसिकता न केवल लैंगिक रूढ़िवादिता को कायम रखती है बल्कि घरेलू जिम्मेदारियों के असमान वितरण को भी मजबूत करती है।

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क्यों लड़कियों और लड़कों में खाने बनाने को लेकर होता है फर्क?

यह एक बड़ा मुद्दा है और यह हर घर और परिवार से जुड़ा हुआ है। यह पितृसत्तात्मक मान्यताओं से बना हुआ एक नियम है। अक्सर घरों में बचपन से लड़कियों को घर के काम करना और खाना बनाना सिखाया जाता है और लड़कों को पढ़ना और बाहर के काम करना सिखाया जाता है। फर्क यहीं से आता है अगर लड़कियों के साथ लड़कों को भी बचपन से ही घर के काम सिखाये जाएँ तो ऐसा होने चांसेज कम हो सकते हैं। लेकिन ऐसा नही किया जाता है और इसके पीछे की वजह सिर्फ हमारा समाज है जो पुरुष और स्त्री के कार्यों को विभाजित करता है। ये रूढ़ियाँ न केवल व्यक्तियों की क्षमता को सीमित करती हैं बल्कि प्रणालीगत असमानताओं को भी कायम रखती हैं। जब लड़कियों को इस धारणा के साथ बड़ा किया जाता है कि उनका मूल्य घरेलू कर्तव्यों से जुड़ा हुआ है, तो यह उनकी अन्य रुचियों और आकांक्षाओं का पता लगाने की क्षमता में बाधा डालता है।

खाना बनाने के लिए लड़कियों की ज़िम्मेदारी की यह लैंगिक अपेक्षा उनके आत्म-सम्मान और मानसिक कल्याण पर हानिकारक प्रभाव डाल सकती है। खाना पकाने के अपने दायित्व के बारे में लगातार याद दिलाए जाने से उनमें बोझ की भावना पैदा होती है और उनका आत्मविश्वास कम हो सकता है। इसके अतिरिक्त, यह एक संदेश भेजता है कि उनका मूल्य उनकी व्यक्तिगत प्रतिभाओं और क्षमताओं के बजाय पूरी तरह से पारंपरिक भूमिकाओं को पूरा करने की उनकी क्षमता में निहित है।

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क्या खाना बनाने को लेकर किया जाने वाला फर्क सही है?

अगर बात की जाए कि क्या खाना बनाने को लेकर लड़कों और लड़कियों में भेदभाव किया जाता सही है तो सबसे पहले यह समझना आवश्यक है खाना बनाना किसी लैंगिक भूमिका ये तहत कैसे निर्धारित किया जा सकता है जबकि खाना खाने की जरूरत हर किसी को है। यदि खाने की जरूरत जीवित रहने के लिए हर एक व्यक्ति को है तो फिर उसे इसे बनाने के गुणों का ज्ञान होना भी आवश्यक है और इसके लिए किसी पर भी निर्भर होना कहीं ना कहीं खुद की जरूरतों का पूरा न कर पाना है। यह धरना हमारे समाज में आम होनी चाहिए खाना कोई भी बनाए उसे बराबर का प्रोत्साहन मिलना चाहिए और लड़कियों को खाना बनाने और खिलाने जैसी लैंगिक रुढियों से आज़ादी भी होनी चाहिए।

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