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Is it still difficult to talk openly about menstruation: माहवारी यानी पीरियड्स, एक स्वाभाविक जैविक प्रक्रिया है, जो हर लड़की और महिला के जीवन का हिस्सा है। फिर भी हमारे समाज में इसे लेकर चुप्पी, शर्म और संकोच इतना गहरा है कि आज भी लोग इसका नाम तक लेने से कतराते हैं। वो दिन, डेट्स, प्रॉब्लम, MC, जैसे गुप्त कोड नामों में लपेटकर इसे छुपाने की कोशिश की जाती है, मानो ये कोई अपराध हो। स्कूलों में लड़कियों को चुपचाप सेनेटरी पैड थमा दिए जाते हैं, घरों में इसे लेकर कोई बातचीत नहीं होती, और बाजार में पैड खरीदते वक्त दुकानदार अब भी काले थैले में लपेटकर देता है, ये सब दिखाता है कि माहवारी को लेकर खुलापन अब भी बहुत दूर की बात है।
क्या आज भी माहवारी पर खुलकर बात करना मुश्किल है?
शर्म किस बात की?
सबसे बड़ा सवाल ये है कि जिस प्रक्रिया के बिना मानव जाति का अस्तित्व ही नहीं संभव, उसे लेकर शर्म कैसी? समाज ने सदियों से महिलाओं के शरीर को एक संकोच की चीज़ बना दिया है। पीरियड्स के दौरान महिलाओं को मंदिर जाने से रोका जाता है, रसोई में घुसने नहीं दिया जाता, और उन्हें अपवित्र मान लिया जाता है। इन मान्यताओं ने सिर्फ भेदभाव को जन्म दिया है और कई लड़कियों में हीन भावना और डर भर दिया है। इतना ही नहीं, कई बार लड़कियां खुद अपने पापा, भाई या दोस्तों से इस विषय पर बात करने से डरती हैं, क्योंकि उन्हें सिखाया गया है कि ये लड़कियों की चीज़ है, जिसे छुपाकर रखना चाहिए।
बात करना ज़रूरी क्यों है?
अगर पीरियड्स पर खुलकर बात नहीं की जाएगी, तो कैसे होगी सही जानकारी की पहुंच? गांवों और छोटे शहरों में आज भी हजारों लड़कियां माहवारी के समय अखबार, राख या गंदे कपड़े इस्तेमाल करती हैं, क्योंकि उन्हें सेनेटरी पैड्स या मेन्स्ट्रुअल हाइजीन की जानकारी नहीं होती। यह न केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है, बल्कि मानसिक रूप से भी लड़कियों को पीछे ढकेलता है। जब समाज इस विषय पर बात करना सीखेगा, तभी बदलाव आएगा। तभी लड़कियां खुद को समझेंगी, अपना ध्यान रखेंगी, और अपनी जरूरतों को बिना झिझक कह सकेंगी।
पुरुषों की भूमिका भी है अहम
माहवारी सिर्फ महिलाओं की नहीं, पूरे समाज की ज़िम्मेदारी है। जब तक पुरुष, पिता, भाई, दोस्त, टीचर, इस पर खुलकर बात नहीं करेंगे, तब तक शर्म और चुप्पी का यह दायरा टूटेगा नहीं। बेटों को भी यह सिखाना ज़रूरी है कि periods एक सामान्य प्रक्रिया है, न कि मज़ाक का विषय या शर्म की बात। जब पुरुष इस बातचीत का हिस्सा बनते हैं, तब एक हेल्दी और संवेदनशील समाज बनता है, जिसमें कोई लड़की खुद को अकेला या ग़लत महसूस नहीं करती।
आज भी माहवारी पर खुलकर बात करना मुश्किल ज़रूर है, लेकिन नामुमकिन नहीं। यह बदलाव हमारी सोच से शुरू होता है। जब हम पीरियड्स को 'गुप्त विषय' की बजाय 'स्वस्थ्य चर्चा' का हिस्सा बनाएंगे, तभी हमारी बेटियां, बहनें और दोस्त खुलकर जी सकेंगी। हर बार जब हम इस विषय पर खुलकर बात करते हैं, एक और लड़की को आवाज़ मिलती है और शायद एक और डर खत्म होता है।
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