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हमारे समाज में बच्चों की परवरिश सिर्फ प्यार और जिम्मेदारियों तक सीमित नहीं है, उसमें कई अनकहे नियम भी शामिल होते हैं। बचपन से ही लड़कों को सिखाया जाता है "मर्द बनो", "रोते नहीं हैं लड़के", और लड़कियों को "शर्म करो", "लड़कियों को ऐसा नहीं करना चाहिए"। ये वाक्य मामूली नहीं हैं, ये उस सोच का हिस्सा हैं जो हमारे समाज की जड़ में बैठी है पितृसत्ता।
'मर्द बनो' का मतलब क्या सिर्फ मजबूत बनना है?
जब किसी लड़के को मर्द बनने को कहा जाता है, तो असल में उससे उसकी भावनाओं को छुपाने, दर्द सहने और हमेशा ताकतवर दिखने की उम्मीद की जाती है। ये उम्मीदें उस पर मानसिक बोझ बन जाती हैं, जहां उसे अपने डर, दुख, असफलता या कमजोरी दिखाने की इजाज़त नहीं होती। ऐसे में कई बार लड़के अंदर ही अंदर टूटते हैं, लेकिन उनकी परवरिश उन्हें यह सिखाती है कि “कमज़ोर दिखना मर्दानगी के खिलाफ है।”
'शर्म करो' से लड़कियों को क्यों चुप कराया जाता है?
जब किसी लड़की को "शर्म करो" कहा जाता है, तो असल में समाज उसे यह संदेश दे रहा होता है कि तुम्हारी आज़ादी, तुम्हारा बोलना, हंसना, अपनी राय रखना या अपने शरीर पर अधिकार सब शर्म की बात हैं। उसे बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि इज़्ज़त उसकी चुप्पी में है, आत्मविश्वास में नहीं। ये ‘शर्म’ का चाबुक, उसकी उड़ान को बार-बार रोके रखता है।
ये वाक्य सिर्फ शब्द नहीं, समाज की सीमाएं हैं
"मर्द बनो" और "शर्म करो" जैसे जुमले एक ऐसी सोच को जन्म देते हैं जो लड़कों को संवेदनशील होने से और लड़कियों को मुखर होने से रोकती है। नतीजा? एक ऐसा समाज जहां पुरुष भावनात्मक रूप से असहाय और महिलाएं आत्मविश्वास से वंचित रह जाती हैं।
क्या अब समय नहीं आ गया बदलाव का?
समाज को अब यह समझने की ज़रूरत है कि मर्दानगी का मतलब ताकत नहीं, संवेदनशीलता भी है, और शर्म का मतलब संस्कार नहीं, एक दमनकारी सोच है। बच्चों को उनकी पहचान, भावनाएं और स्वतंत्रता के साथ बड़ा करना चाहिए बिना लैंगिक लेबल के।
अगर हम सच में एक बेहतर समाज चाहते हैं, तो हमें अपनी ज़बान से शुरुआत करनी होगी। अगली बार जब कोई लड़का रोए, तो उसे गले लगाइए कहिए "रोना गलत नहीं है।" और जब कोई लड़की अपनी बात कहे, तो उसकी आवाज़ को दबाइए नहीं कहिए "बोलना तुम्हारा हक है।" यही बदलाव की शुरुआत है।