Opinion: कामकाजी महिलाओं को लेकर आज भी समाज की दोहरी सोच, आखिर कब तक?

समाज ने चश्मे में एक कामकाजी महिला को एक दोषी के रूप में देखा जाता है। जहाँ एक तरफ उसके बाहर काम करने से दिक्कत है लेकिन घर का सारा काम करने की अपेक्षाए रखी जाती है। ऐसे में सवाल ये है की 21 वीं सदी में भी आखिर समाज की ये दोहरी सोच आखिर कब तक ?

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Simran Kumari
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Housewife (Pinterest)

Why society has a double standard regarding working women: आज भी कहीं न कहीं हमारे समाज में लड़कियों और महिलाओं को लेकर दोहरी मानसिकता देखने को मिलती है। जहां एक महिला अगर कामकाजी है तो ये सोच और भी गहरी हो जाती है। एक समाज एक महिला से सैकड़ों अपेक्षाएं रखता है और चाहता है कि महिला उन पर खरी उतरे, वो भी परफैक्शन के साथ। इस चक्कर में आज के इस आधुनिक और शिक्षित समाज में भी महिलाओं के लिए अपनी पहचान बनाना आसान नहीं है। समाज की दोहरी सोच उन्हें कहीं न कहीं पीछे खींचने का प्रयास करती है और अपनी अपेक्षाएं उनपर थोप देती है। आइए जानते हैं कैसे कामकाजी महिलाओं को लेकर समाज की दोहरी सोच देखने को मिलती है।

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कामकाजी महिलाओं को लेकर आज भी समाज की दोहरी सोच, आखिर कब तक?

आखिर क्यों एक कामकाजी महिला बने परफेक्ट हाउसवाइफ

समाज अक्सर कामकाजी महिलाओं से उम्मीद करता है कि वो एक परफेक्ट हाउसवाइफ का भी फर्ज निभाए। जिसमें उनकी अपेक्षाएं रहती है कि वो ऑफिस के साथ घर का काम संभाले, वो पति और सास ससुर की सेवा करे और घर के हर सदस्य का ख्याल रखे। एक महिला अगर 8 से 9 घंटे की भी शिफ्ट करके आती है तो उससे उम्मीद की जाती है कि वो खाना बनाए, बच्चों का होमवर्क करवाए। लेकिन वहीं उसके पति को आराम करने दिया जाता है। ये समाज की दोहरी मानसिकता का एक अच्छा उदाहरण है।

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करियर या परिवार, बताओ कौन?

अक्सर ऐसा देखा जाता है कि एक कामकाजी महिला को करियर और परिवार के बीच में एक को चुनने को कहा जाता है और उनसे उम्मीद की जाती है कि वो परिवार को ही चुने। ये अपेक्षाएं किसी लड़की के लिए तब और बढ़ जाती जब वो मां बनती है। उससे उम्मीद की जाती है कि वो अब अपना करियर खत्म कर केवल बच्चे की देखभाल करे।

पुरुष करे तो प्रशंसा और महिला करे तो कर्तव्य, आखिर क्यों? 

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समाज में कुछ कामों को दोहरे नजरिए से देखा जाता है। अक्सर ऐसा पाया जाता की अगर पुरुष ऑफिस के साथ खाना बनाने या घर के काम संभाल रहा तो उसे आदर्श पति समझा जाएगा। वही एक लड़की ये करे तो तो इसे उसको फर्ज का नाम दे दिया जाता है। ये समाज की दोहरी सोच का एक ऐसा उदाहरण है जो महिला पुरुष के काम को अलग-अलग चश्मों से देखती है।

महिला बोल रही तो शायद ही सही हो

अक्सर महिलाओं की बातों को वर्मप्लेस में कम गंभीरता से लिया जाता है। उनके ऑफिस में अपनी लड़की होने का खामियाजा भुगतना पड़ता है। उदाहरण के लिए ऐसे ही एक रिपोर्ट में सामने आया है कि एक लड़की को प्रमोशन बस इसलिए नहीं मिल पाता क्योंकि बॉस को लगता है कि वो अपने बच्चों और घर के वजह से एक पुरुष एम्प्लॉई की तुलना में ज्यादा छुट्टी लेगी। ऐसे में महिलाओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है।

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महिलाओं की सफलता पर शक की निगाह आखिर क्यों? 

ऐसा कई बार देखा जाता है कि महिलाओं की सफलता पर शक किया जाता है। उसकी तरक्की पर सवाल उठाए जाते है। क्या किसी ने इसकी सिफारिश की थी? या क्या बॉस से इसकी नजदीकियां ज्यादा थी ? ऐसे सवाल उस महिला के आत्माबल को कमजोर करते है और उनका मनोबल टूटता है।

ऐसे में सवाल ये उठता की समाज का ये दोहरा रवैया आखिर कब तक ? समाज को ये समझना होगा कि वो एक महिला है कोई सुपरवुमन नहीं जो हर काम करे और परफैक्शन के साथ करे। कामकाजी महिलाओं से हर मोर्चे पर परफेक्ट होने की अपेक्षा करना पूरी तरह से अनुचित है। जहां एक पुरुष से ऐसी अपेक्षाएं नहीं की जाती आखिर महिला से क्यों? इस सोच में बदलाव तभी संभव हो पाएगा जब समाज अपनी इस दोहरी मानसिकता को छोड़ कर आगे बढ़ेगा और अपने दोहरे रवैए को बदलकर महिलाओं को उनके काम के लिए समान रूप से पहचान और सराहना देगा। महिलाओं को ऑफिस और घर दोनों जगह सपोर्ट की जरूरत है ताकि वो बिना दवाब अपना काम कर सके।