महिलाओं को ‘अच्छी बहू’ बनने का दबाव क्यों? खुद को साबित करने की यह दौड़ कब रुकेगी?

शादी के बाद महिलाओं से ‘अच्छी बहू’ बनने की उम्मीद क्यों रखी जाती है? क्यों उन्हें ही हर परीक्षा से गुजरना पड़ता है? जानिए इस सोच के पीछे की सच्चाई और बदलाव की ज़रूरत।

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Vaishali Garg
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Indian village women

"अच्छी बहू बनो!" यह वाक्य हर शादीशुदा लड़की की ज़िंदगी का एक अनिवार्य हिस्सा बन चुका है। चाहे वह कितनी ही पढ़ी-लिखी हो, कितनी भी सफल हो, लेकिन शादी के बाद उसे ‘अच्छी बहू’ बनने की कसौटी पर खरा उतरना ही पड़ता है। सवाल यह उठता है कि आखिर यह दबाव सिर्फ महिलाओं पर ही क्यों? क्या शादी के बाद पुरुषों को ‘अच्छा दामाद’ बनने के लिए किसी परीक्षा से गुजरना पड़ता है? शायद नहीं!

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‘अच्छी बहू’ की परिभाषा आखिर क्या है?

समाज में ‘अच्छी बहू’ बनने की जो परिभाषा गढ़ी गई है, उसमें एक महिला से अपेक्षा की जाती है कि वह हर परिस्थिति में शांत रहे, सबको खुश रखे, घर के काम-काज में निपुण हो, परिवार की हर ज़िम्मेदारी को अपने कंधों पर ले और कभी किसी बात की शिकायत न करे। अगर वह नौकरी करती है, तो घर और ऑफिस दोनों को बिना किसी शिकायत के संभाले। और अगर वह घर पर रहती है, तो उसकी ‘ड्यूटी’ बन जाती है कि घर का हर सदस्य उसके योगदान को "स्वाभाविक" मानकर चले।

क्यों सिर्फ बहू को ही परीक्षा देनी पड़ती है?

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शादी दो लोगों का रिश्ता होता है, लेकिन ज़िम्मेदारियों की सूची सिर्फ एक के लिए तैयार की जाती है वह है बहू। उसे नए घर में हर किसी को खुश करने का ज़िम्मा दिया जाता है, लेकिन क्या घर के बाकी सदस्यों को भी यह सिखाया जाता है कि नई बहू को भी एक इंसान समझें, उसकी भावनाओं को महत्व दें, उसे सहज महसूस कराएं? शायद नहीं। बहू के लिए नियम होते हैं, लेकिन ससुराल वालों के लिए कोई गाइडलाइन नहीं होती।

‘अच्छी बहू’ का टैग ही क्यों चाहिए?

समाज ने यह धारणा बना ली है कि अगर कोई लड़की शादी के बाद अपने लिए खड़ी होती है, अपनी सीमाएं तय करती है, तो वह ‘असभ्य’ या ‘बुरी बहू’ कहलाने लगती है। जबकि हकीकत यह है कि हर इंसान को अपने आत्मसम्मान और खुशहाली का अधिकार है। बहू का मतलब "सेवा करने वाली" नहीं होता, वह भी एक स्वतंत्र व्यक्ति है जिसे अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीने का पूरा हक़ है।

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अब यह सोच बदलनी होगी

अब समय आ गया है कि इस मानसिकता को बदला जाए। शादी किसी की परीक्षा नहीं, बल्कि दो लोगों के बीच की साझेदारी होनी चाहिए। बहू से जितनी अपेक्षाएं रखी जाती हैं, वही अपेक्षाएं बेटे से भी रखी जानी चाहिए। अगर बहू को घर संभालने की उम्मीद की जाती है, तो बेटे को भी परिवार की ज़िम्मेदारियों में बराबर की हिस्सेदारी निभानी चाहिए।

‘अच्छी बहू’ बनने का यह दबाव अब खत्म होना चाहिए। हर लड़की को अपने व्यक्तित्व, इच्छाओं और करियर को बनाए रखने का हक़ है। हमें इस सोच को बदलना होगा कि शादी के बाद एक लड़की का पूरा अस्तित्व केवल ‘बहू’ तक सीमित रह जाता है। उसे भी अपनी पहचान बनाए रखने की आज़ादी मिलनी चाहिए, क्योंकि एक बहू होने से पहले वह एक इंसान है, और इंसान होने के नाते उसे भी अपनी शर्तों पर जीने का हक़ है।