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समाज में महिलाओं की लंबी सोशल-कंडीशनिंग और रिलेशनशिप्स की एजेंसी को चलाने का जिम्मा महिलाओं को बिना उनकी मर्जी और निर्णय के सौंप दिया जाता है, जिससे उनकी भावनात्मक संरचना ऐसी हो जाती है कि "लव विदआउट परमिशन" एक समाज में चलने वाली प्रक्रिया बन जाती है, जिसे हर महिला को स्वीकार करना पड़ता है। स्वीकृति के बिना प्रेम सिर्फ रोमांटिक नहीं, बल्कि आत्म-स्वीकृति और भावनात्मक फ्रीडम का भी प्रश्न है।
रिलेशनशिप्स में भावनाओं को दूसरे की मंजूरी से कैसे और क्यों जोड़ देती हैं महिलाएं?
1. सोशल-कंडीशनिंग
बचपन से महिलाओं को सिखाया जाता है कि उन्हें दूसरों की भावनाओं, एक्सपेक्टेशंस और स्वीकृति के अनुसार खुद को ढालना चाहिए। इसके कारण लव को भी इसी नजरिए से देखती हैं और वैलिडेशन मिलने को ही लव समझने लगती हैं।
2. इमोशनल लेबर का बोझ
महिलाएं अक्सर रिलेशनशिप्स में इमोशनल बैलेंस की जिम्मेदारी स्वयं पर ले लेती हैं, और उस बोझ को अकेले ही ढोती रहती हैं। वे समझती हैं कि रिलेशनशिप में सब ठीक होना उन पर डिपेंड करता है और इसके चलते सामने वाले की हैप्पीनेस को ही अपनी हैप्पीनेस और लव से जोड़ने लगती हैं।
3. फियर ऑफ रिजेक्शन या अबैंडनमेंट
कभी-कभार महिलाएं अपने लव को तभी स्वीकार कर पाती हैं जब उन्हें यकीन हो कि सामने वाला उसे एक्सेप्ट करेगा। इससे उनका लव कंडीशनल हो जाता है।
4. सेल्फ-वर्थ का एक्सटर्नलाइजेशन
जब सेल्फ-रेस्पेक्ट बाहरी स्वीकृति पर डिपेंड हो जाता है, तो लव भी अप्रूवल से जुड़ जाता है। उनका लव इस बात पर डिपेंड होने लगता है कि "वह मुझे चाहेगा तो भी लव के योग्य हूँ, अन्यथा नहीं"। यह सोच गहरी जड़ों से जुड़ी होती है।
5. बाउंडरीज और लिमिट का निश्चित न होना
महिलाएं अक्सर अपने पार्टनर या सामने वाले को पूरा स्पेस देती हैं और भूल जाती हैं कि हर रिलेशनशिप की भी सीमाएं होती हैं। उनके लापरवाह होने से होने वाली तकलीफ को वे नजरअंदाज करती रहती हैं और अंदर से घुट कर रहती हैं। "मैं क्या फील करती हूँ" को "क्या वह सोचता है" से एकतरफा तोलने लगती हैं।