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कॉमेडी और लेखन की दुनिया में अपनी अलग पहचान बना चुकीं मल्लिका दुआ ने हाल ही में The Rulebreaker Show में अपनी ज़िंदगी के सबसे निजी पहलुओं पर खुलकर बात की। माता-पिता को खोने का ग़म, जीवन का मकसद ढूंढ़ने की जद्दोजहद, और औरतों पर थोपे गए सामाजिक दबाव उन्होंने हर पहलू को बेहद सच्चाई और संवेदनशीलता के साथ साझा किया।
“कभी-कभी दुःख आपसे बड़ा हो जाता है”: मल्लिका दुआ की कहानी, जो हर दिल को छू जाती है
माता-पिता को खोने का दर्द: जो हमेशा साथ रहता है
मल्लिका अपने माता-पिता के जाने को एक ऐसा घाव मानती हैं जो कभी भरता नहीं। “अगर आप 100 साल की उम्र में भी अपने माता-पिता को खो दें, तब भी आप इसके लिए तैयार नहीं होते।” वो मानती हैं कि उन्हें ऐसे माता-पिता मिले जिन्होंने बहुत प्यार और समझदारी से बेटियों की परवरिश की। फिर भी,
“कुछ दिन ऐसे होते हैं जब दुःख आपसे बड़ा होता है, और कुछ दिन आप उससे बड़े होते हैं। अब ये दर्द ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका है।” थेरेपी, व्यायाम (जैसे बॉक्सिंग), और खुद को रोने देने का समय देना ये सब उन्हें अपने दुख से निपटने में मदद करता है। लेकिन उनका मानना है कि “ग़म कोई ऐसी चीज़ नहीं जिसे आप भूल जाएं, बल्कि अब उसके साथ जीना सीखना पड़ता है।”
मकसद की तलाश: जब जीने से ज़्यादा कुछ चाहिये होता है
आज मल्लिका उस दौर से गुज़र रही हैं जहां वे ज़िंदगी का गहरा उद्देश्य तलाश रही हैं। “मैंने अब तक सिर्फ़ जिंदा रहने का काम अच्छे से किया है, लेकिन मेरे पास कोई ठोस मकसद नहीं है। कई बार लगता है कि खुद को संभाल पाना ही मुश्किल है।”
वो मानती हैं कि आज की पीढ़ी के लिए शादी, बच्चे और पारंपरिक ज़िम्मेदारियाँ ज़िंदगी की सफलता का पैमाना नहीं रहीं। “मैं किसी ऐसे अनुभव की तलाश में हूं, जो मेरे अंदर से आने वाली भावनाओं से भी बड़ा हो जो मुझे सिर्फ जीने के लिए नहीं, कुछ करने के लिए प्रेरित करे।”
शादी और बच्चों को लेकर सवाल: क्या सबके लिए ज़रूरी है?
मल्लिका मानती हैं कि उनके माता-पिता की परवरिश इतनी बेहतरीन थी कि उससे कम देना उन्हें मंज़ूर नहीं। “अगर मैं वैसी परवरिश नहीं दे सकती, तो फिर बच्चे क्यों?”वो शादी को भी एक सामाजिक सौदा नहीं मानतीं, बल्कि उसे दो इंसानों के बीच की सच्ची दोस्ती और साझेदारी समझती हैं। “अगर शादी साथ में सुकून और दोस्ती लाए, तो ठीक है। वरना मैं बेवजह का झंझट नहीं चाहती।”
झूठी चमक-धमक से दूरी: जब सोशल मीडिया थका देता है
मल्लिका डिजिटल दुनिया के दिखावे से परेशान हैं। “आप देश के लिए मेडल जीतने वाले खिलाड़ी हो सकते हैं, लेकिन आज आपको किसी बेहूदे गाने पर रील बनानी पड़ती है। ये हम सबके बारे में क्या कहता है?”
उनका मानना है कि आज हम सब कुछ पा तो रहे हैं, लेकिन खोते जा रहे हैं खासकर असलीपन और मानसिक शांति। “हर चीज़ हमें 6 मिनट में मिल रही है, लेकिन हम असल में क्या ले रहे हैं अपने अंदर?”
नारीवाद और अपने फैसलों की आज़ादी
मल्लिका मानती हैं कि नारीवाद का मतलब सिर्फ़ विरोध नहीं, बल्कि विकल्पों की आज़ादी है। “अगर कोई औरत मां बनना चाहती है या घर बसाना चाहती है, तो इससे वो कम नारीवादी नहीं हो जाती।”
वो आधुनिक चिकित्सा तकनीकों को भी महिला स्वाभिमान और आज़ादी से जोड़ती हैं “अब किसी को सिर्फ शरीर की उम्र देखकर फैसले नहीं लेने पड़ते। यही असली आज़ादी है।”
सेहत और बढ़ती उम्र के साथ तालमेल
मल्लिका अपने शरीर की ज़रूरतों को ध्यान में रखती हैं। उनका कहना है कि दिन की शुरुआत नमकीन और फैटी चीजों से करती हैं ताकि शुगर की अचानक कमी न हो। ताकत बढ़ाने वाले व्यायाम और टहलना उनके रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा हैं।
अपने छोटे वर्जन को क्या कहतीं?
बचपन को लेकर मल्लिका कहती हैं “डर को अपनी ज़िंदगी की दिशा मत दो। स्कूलों में झूठी इज़्ज़त और सबको खुश रखने की आदत सिखाई जाती है, जबकि बचपन को चिंता नहीं, खुशी से भरपूर होना चाहिए।”
विदेश में पढ़ाई के अनुभव को लेकर उनका कहना है:
“तुम्हें दुनिया की इज़ाजत नहीं चाहिए जीने के लिए। दुनिया बदलेगी, लेकिन अपनी क़ीमत तुम खुद तय करोगे।” मल्लिका दुआ की कहानी उस हर औरत की कहानी है जो दुःख, अकेलेपन, सामाजिक अपेक्षाओं और अपने अंदर के सवालों से जूझ रही है। लेकिन उनकी ईमानदारी, साफगोई और अपनेपन से भरी बातें हमें ये याद दिलाती हैं हीलिंग एक सीधी राह नहीं है, लेकिन चलना बंद नहीं करना चाहिए।