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समाज में महिलाओं को ध्यान में रखते हुए इतने परिवर्तन आने के बाद भी कुछ लोग बहुत रूढ़िवाद है. उनके अनुसार एक आत्मनिर्भर और आर्थिक रूप से स्वतंत्र महिला स्वीकारी जा सकती है परंतु उनके लिए यह स्वीकार करना बहुत कठिन है कि वह अपने धन का उपयोग अपने माता पिता की देखरेख में इस्तेमाल करती है. आज भी हमारे समाज में ऐसे बहुत लोग हैं जो सोचते हैं कि माता-पिता की देखरेख की जिम्मेदारी एक पुत्र की ही होती है. बेटी की तरह उसका धन भी पराया होता है और बेटी की आमदनी पर उनका कोई अधिकार नहीं होता.
ऐसे भी कई मां-बाप हैं जो अपनी मुसीबतें अपनी बेटियों से छुपाते हैं क्योंकि वह उन पर एक आर्थिक बोझ नहीं बनना चाहते और वह इस शर्मिंदगी से बचना चाहते हैं.
मेरा प्रश्न यह है कि इतने प्यार से पालन पोषण करके बड़ा करने वाले माता-पिता का बेटी की आमदनी पर कोई अधिकार क्यों नहीं हो सकता ? अपनी ही बेटी से सहायता लेने में माता-पिता को शर्मिंदगी महसूस क्यों करनी पड़ती है? क्या प्रत्येक बेटी का फर्ज नहीं है कि वह अपने माता-पिता का ध्यान रखें और और उनके बुरे समय में उनका साथ दें?
मेरे अनुसार केवल वही लोग बेटी को पूर्ण तरीके से अपनाने से घबराते हैं जो बेटी को बोझ मानते हैं और बेटे को परिवार का कुलदीपक परंतु वे यह भूल जाते हैं कि दोनों बेटे और बेटी की अपने माता पिता के तरफ समान जिम्मेदारी होती है.
भारत में ऐसे कितने ही परिवार हैं जिसमें माता पिता बेटे के साथ न रहकर अपनी बेटियों के साथ रहते हैं और उन पर निर्भर है. ऐसे में हम माता पिता के प्रति बेटी के प्यार का तिरस्कार कैसे कर सकते हैं? इतना क्रूर मनुष्य कब से हो गया?
मेरे अनुसार जब समाज समझ जाएगा कि माता पिता की देखभाल बेटी की भी जिम्मेदारी है उस दिन समाज से कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियां भी मिट जाएंगी और यह दुनिया दोनों बेटों और बेटियों के लिए एक सुन्दर जगह बन जाएगी
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