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पहली बार पैड इस्तेमाल करते वक़्त खुश थी, बहता हुआ खून देख कर भी अच्छा लग रहा था। मेरी बॉडी कितनी अनोखी है, ये सोचकर मन उत्साह से भरा था।
बचपन में घटी घटना
पीरियड इंजॉय करना शुरू किया ही था कि एक ऐसी घटना हुई जिसने मुझे अंदर तक झकझोर के रख दिया। एक दिन स्कूल में पैड ठीक तरह से न लगाने की वजह से पूरी स्कर्ट लाल हो गयी। उस समय सिटिंग अरेंजमेंट कुछ ऐसा था कि लड़कियों को लड़कों के साथ बैठना होता था क्योंकि सहेलियाँ साथ बैठ जाएँ तो बहुत बातें करती थी। किसी तरह सहेलियों से घेरा बना बनवा कर रिसेस में उठी और "आया" के पास गयी। उन्होंने नई स्कर्ट और पैड दिया। मैं चेंज करके सुकून से क्लास की तरफ़ चली। क्लास का नज़ारा देख कर हम सब चौँक गए।
सारे लड़के मेरे बेंच के पास खड़े होकर हँस रहे थे। इतने में एक लड़की दौड़कर आई और उसने बताया कि तुम्हारे सीट पर खून है, और लड़के उसी को देख कर हँस रहे हैं। मैं शर्म से गड़ गयी। स्कूल से मन उठ गया। चाहती थी कि पीरियड्स हों तो स्कूल न जाऊँ पर पापा से क्या कहती इसलिए स्कूल जाना ही पड़ा। मेरी सभी सहेलियों को एक-एक करके पीरियड्स हुए। किसी को बहुत दर्द होता, किसी को बिल्कुल नहीं। एक साथ हमने स्कूल में "अपनी बीमारी" छिपा कर रखने का काम सफ़लता से पूरा किया लेकिन स्कूल से बुरी हालत घर पर होती थी।
माँ स्टेन लग जाने पर बहुत डाँटती थी, तुरंत कपड़े धुलवाती थी, मैं रो रोकर कपड़े धोती थी पर कितनी भी कोशिश कर लूँ आये दिन स्टेन लग ही जाता था। मुझे दर्द भी बहुत होता था पर माँ हमेशा उसे बहाने का नाम दे देती थी। "हमें भी पीरियड्स होते हैं, हम तो पूरे घर का काम कर लेते हैं" सुन सुन कर थक चुकी थी। मैंने माँ से अपना दर्द बताना ही बन्द कर दिया। इतना सब होने के बाद पीरियड्स से चिढ़ हो गयी।
आज सब याद करती हूँ तो बहुत गुस्सा आता है। दर्द छुपाने के चक्कर में मै समय से पहले ही बड़ी हो गयी और दोहरी ज़िंदगी जीने लगी। ये एक्सपीरिएंस केवल मेरा नहीं है, इस देश की हर लड़की की यही कहानी है।
पीरियड्स को छिपाते क्यों हैं ?
दुनिया की सबसे खूबसूरत और नैचुरल प्रक्रिया को छिपाने का भला क्या अर्थ? आज जब अपने मेल फ्रेंड्स को इसके बारे में बात करते देखती हूँ तो बदलाव की झलक दिखती है। लेकिन अभी भी बहुत कुछ बदलना बचा है। भारत में आज भी लगभग 88% महिलाएँ पीरियड में गन्दे कपड़े या अखबार का इस्तेमाल करती हैं क्योंकि पुरुष प्रधान मानसिकता रखने वाली सरकारों को ये समझ नहीं आता कि पैड भी रोटी और कपड़े की तरह औरतों की बेसिक ज़रूरतों में से एक हैं और औरतों के पैड से ज़्यादा ज़रूरी उनके पतियों की शराब है। इतना ही नहीं पीरियड्स को इतनी बुरी नज़र से देखा जाता है कि उसके बारे में बात करना भी गुनाह है। औरतें किसी से कहती नहीं और मर्द इसके बारे में बात करना अपनी शान के खिलाफ़ समझते हैं। यहाँ तक कि पीरियड्स की वजह से लोग तलाक लेने भी पहुँच जाते हैं।
जब तक पीरियड "औरतों का मामला" रहेगा तब तक इससे जुड़ा कोई भी टैबू खत्म नहीं हो पायेगा इसलिए बहुत ज़रूरी है कि इसके बारे में खुल कर बात हो। हर किसी को ये जानना होगा कि पीरियड्स नैचुरल है, इसमें कोई बुराई नहीं है। यह वही खून है जिससे गर्भावस्था के दौरान कोख में पलने वाले बच्चे का शरीर तैयार होता है।तब जाकर दुकान से बिना काली पन्नी के पैड लाना आसान हो पाएगा, तब जाकर घर से लेकर ऑफिस तक हर जगह को महिलाओं की ज़रूरतों के हिसाब से ढ़ाला जाएगा और तब जाकर पीरियड लीव नॉर्मलाइज़ हो सकेगा। जब तक ये दुनिया एक जेंडर के लेंस से देखी जाएगी, तब तक महिलाओं का और समाज का उत्थान नहीं हो सकता। दुनिया को सभी जेंडर्स की ज़रूरतों के हिसाब से खुद को बदलना होगा।
2021 से मेरी उम्मीद
मैं चाहती हूँ कि 2021 से लोग पीरियड को पोज़िटिवली देखें। महिलाएँ अपने ही खून को गन्दा न कहें और पुरुष इसे औरतों का मामला ने कहें। ये महिलाओं की सेफ्टी और डिग्निटी का प्रश्न है। मैं उम्मीद करती हूँ कि आने वाले वर्ष में लोग महावारी को लेकर पहले से ज़्यादा जागरुक होंगे और हम लिंग समानता की तरफ़ एक कदम और आगे बढ़ेंगे।