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जानिए भारतीय सिनेमा में महिलाओं की लंबी और सशक्त यात्रा के बारे में

भारतीय सिनेमा में महिलाओं की भूमिकाएं समय के साथ बदली हैं। जानें कैसे सिनेमा ने महिलाओं के सशक्तिकरण और उनकी स्वतंत्रता को नए आयाम दिए हैं, और कैसे यह समाज में बदलाव का प्रतीक बना।

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Vaishali Garg
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How Women's Empowerment is Reshaping Indian Cinema and Inspiring Change? भारतीय सिनेमा में महिलाओं की यात्रा एक ऐसा सफर है जो समाज के बदलते मिजाज और सशक्तिकरण की कहानी को बखूबी बयां करता है। फिल्मों में महिलाओं का चित्रण, भूमिकाएं और उनकी पहचान, समय के साथ न सिर्फ बदली है बल्कि एक सशक्त संदेश भी दिया है। यह सफर एक दर्पण के समान है, जिसमें समाज की मानसिकता और दृष्टिकोण की झलक दिखाई देती है।

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जानिए भारतीय सिनेमा में महिलाओं की लंबी और सशक्त यात्रा के बारे में 

शुरुआती दौर: सीमित भूमिकाओं का बंधन

भारतीय सिनेमा के शुरुआती दौर में महिलाओं की भूमिकाएं बहुत सीमित और पारंपरिक हुआ करती थीं। उन्हें 'आदर्श' पत्नी, मां या प्रेमिका के रूप में दिखाया जाता था, जो ज्यादातर घरेलू और त्याग की कहानियों पर आधारित होती थीं। देविका रानी, नरगिस और मीना कुमारी जैसी अभिनेत्रियों ने अपने शानदार अभिनय से उस दौर में जगह बनाई, लेकिन उनके किरदारों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की कमी थी। उस समय महिलाओं की भूमिकाएं मुख्यतः पुरुष किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती थीं, और उनके खुद के निर्णय और इच्छाएं लगभग गौण थीं।

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बदलाव की बयार: 1970 और 80 का दशक

1970 और 80 के दशक में भारतीय सिनेमा में धीरे-धीरे बदलाव आने लगा। इस दौर में महिला पात्रों के संघर्षों और चुनौतियों को अधिक प्रमुखता मिली। फिल्मों में महिलाओं के व्यक्तिगत अधिकारों और सामाजिक मुद्दों को लेकर सवाल उठाए गए। अर्थ (1982) और मिर्च मसाला (1987) जैसी फिल्मों ने महिलाओं की स्वायत्तता और आत्मसम्मान को एक नया आयाम दिया।

इस समय तक, भारतीय सिनेमा ने महसूस किया कि महिला किरदार सिर्फ सहायक नहीं हो सकते, बल्कि वो कहानी के केंद्र में हो सकते हैं। इस दशक में महिलाओं की आवाज़ को फिल्मी पर्दे पर नई पहचान मिली, जहां उन्होंने अपनी इच्छाओं, सपनों और संघर्षों के लिए आवाज़ उठाई।

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आधुनिक सिनेमा: सशक्तिकरण और स्वतंत्रता का प्रतीक

21वीं सदी में महिलाओं की भूमिकाएं पूरी तरह बदल गईं। अब महिलाएं केवल सशक्त किरदार निभाने तक सीमित नहीं हैं, बल्कि फिल्में उनके इर्द-गिर्द रची जा रही हैं। क्वीन (2013), पीकू (2015), तुम्बाड (2018), और थप्पड़ (2020) जैसी फिल्मों ने न सिर्फ सामाजिक मुद्दों को उठाया, बल्कि महिलाओं के स्वतंत्र निर्णयों और उनके व्यक्तित्व को भी निखारा।

इन फिल्मों ने स्पष्ट किया कि महिलाएं न केवल समाज के रूढ़िवादी ढांचों को तोड़ सकती हैं, बल्कि अपनी पहचान के लिए लड़ने की क्षमता भी रखती हैं। अब महिला पात्र सिर्फ सहनशील या परिवार-समर्पित नहीं हैं, बल्कि वे अपने अधिकारों, इच्छाओं और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए खड़ी होती हैं।

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नई सोच, नया सिनेमा

हाल के वर्षों में, महिलाओं पर आधारित फिल्में मुख्य धारा का हिस्सा बन गई हैं। अब न केवल स्वतंत्र और कलात्मक सिनेमा में, बल्कि बड़े बजट की व्यावसायिक फिल्मों में भी महिलाओं की मुख्य भूमिका को स्वीकारा जा रहा है। यह दिखाता है कि सिनेमा में महिलाओं की कहानी सिर्फ नायक के साथ जुड़ी नहीं, बल्कि वे खुद नायक की भूमिका निभा सकती हैं। गंगूबाई काठियावाड़ी (2022) इसका एक बड़ा उदाहरण है, जहां महिला किरदार ने पूरी फिल्म की कमान संभाली और अपने संघर्ष को प्रमुखता से दर्शाया।

सिनेमा और समाज: महिलाओं की वास्तविक पहचान

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भारतीय सिनेमा ने महिलाओं की पहचान को नई दिशा दी है। यह न सिर्फ मनोरंजन का जरिया है, बल्कि यह समाज की मानसिकता को भी प्रभावित करता है। सिनेमा के माध्यम से महिलाओं ने अपनी आवाज को मजबूत किया है और अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाई है।

यह स्पष्ट है कि भारतीय सिनेमा में महिलाओं की यात्रा कठिन रही है, लेकिन आज वह एक सशक्त और प्रेरणादायक रूप में दिखाई दे रही है। हर फिल्म और हर किरदार ने महिलाओं के सशक्तिकरण के रास्ते में एक ईंट जोड़ी है, और यह यात्रा अभी भी जारी है।

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