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Shyam Benegal Films : 'अंकुर' से 'जुबैदा' तक उनकी बेहतरीन फिल्मों का सफर

श्याम बेनेगल, भारतीय समानांतर सिनेमा के अग्रणी, ने 'अंकुर', 'मंथन' और 'जुबैदा' जैसी फिल्मों से सिनेमा को नया आयाम दिया। उनकी फिल्मों ने सामाजिक मुद्दों को गहराई से प्रस्तुत किया। आइए उनकी सबसे प्रतिष्ठित फिल्मों पर नजर डालें।

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Vaishali Garg
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Shyam Benegal

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Shyam Benegal’s Iconic Films: भारतीय समानांतर सिनेमा आंदोलन के अग्रणी, श्याम बेनेगल, जिनकी फिल्में सामाजिक प्रासंगिकता और कलात्मकता की मिसाल हैं, का हाल ही में निधन हो गया। 90 वर्ष की उम्र में दुनिया को अलविदा कहने वाले इस दिग्गज निर्देशक ने सिनेमा को एक नई दिशा दी। उनकी फिल्मों ने ना केवल कहानियों को एक नया दृष्टिकोण दिया, बल्कि भारतीय समाज के जटिल मुद्दों को भी गहराई से दर्शाया। आइए, उनकी सबसे महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित फिल्मों पर नजर डालते हैं, जिन्होंने उनकी विचारधारा और शैली को सबसे बेहतर तरीके से प्रस्तुत किया।

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Shyam Benegal’s Iconic Films: 'अंकुर' से 'जुबैदा' तक उनकी बेहतरीन फिल्मों का सफर

'अंकुर' (1974): ग्रामीण भारत की सच्चाई का आईना

श्याम बेनेगल की पहली फिल्म 'अंकुर' ने जाति, वर्ग और पितृसत्ता जैसे मुद्दों को बड़े ही सहज और सशक्त ढंग से पेश किया। इस फिल्म में शबाना आज़मी और अनंत नाग जैसे कलाकारों ने शानदार अभिनय किया। कहानी में एक ज़मींदार का बेटा सुर्या (अनंत नाग) अपने पिता की संपत्ति संभालने आता है और लक्ष्मी (शबाना आज़मी) के साथ एक गैरकानूनी रिश्ते में जुड़ जाता है। यह फिल्म ग्रामीण भारत की कड़वी सच्चाई को बेहद प्रभावशाली तरीके से दिखाती है।

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'मंथन' (1976): सहकारी आंदोलन की प्रेरणादायक कहानी

दुग्ध उत्पादकों के सहकारी आंदोलन पर आधारित 'मंथन' भारतीय सिनेमा की एक अनोखी मिसाल है। यह फिल्म हज़ारों किसानों द्वारा दिए गए योगदान से बनी और ग्रामीण समुदायों की ताकत को दर्शाती है। सामाजिक बदलाव और व्यक्तिगत संघर्षों को बेहद सशक्त ढंग से पेश करने वाली इस फिल्म ने 'पार्टिसिपेटरी सिनेमा' की शुरुआत की।

'भूमिका' (1977): महिला अस्तित्व की कड़वी सच्चाई

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'भूमिका' एक ऐसी महिला की कहानी है, जो समाज की अदृश्य जंजीरों में जकड़ी हुई है। यह फिल्म महिलाओं के सपनों, उनकी स्वतंत्रता और पितृसत्तात्मक समाज की कठोर सच्चाई को उजागर करती है। यह फिल्म उपन्यास 'उत्तरायण' पर आधारित है और आज भी महिलाओं के संघर्षों का प्रतीक मानी जाती है।

'कोंडुरा' (1978): पौराणिकता और यथार्थ का संगम

मराठी लेखक चिंतामणि टी. खानोलकर के उपन्यास पर आधारित 'कोंडुरा' ने समाज की पितृसत्तात्मक सोच और वर्ग भेद को गहराई से पेश किया। एक युवा ब्राह्मण को एक संत से दिव्य शक्ति मिलती है, लेकिन यह शक्ति उसके समाजिक और व्यक्तिगत संघर्षों को और जटिल बना देती है।

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'कलयुग' (1981): महाभारत का नया दृष्टिकोण

'कलयुग' महाभारत की कथाओं को समकालीन दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है। भाई-भाई की दुश्मनी, सत्ता संघर्ष और धर्म के पतन जैसे महाभारत के विषयों को फिल्म ने बखूबी दर्शाया। यह फिल्म भारतीय सिनेमा में पौराणिक और यथार्थवादी कहानियों का बेहतरीन संगम मानी जाती है।

'जुबैदा' (2001): एक महिला की इच्छाओं और संघर्षों की कहानी

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करिश्मा कपूर, रेखा और मनोज बाजपेयी के बेहतरीन अभिनय से सजी 'जुबैदा' एक ऐसी महिला की कहानी है, जो अपने सपनों और सामाजिक सीमाओं के बीच फंसी हुई है। यह फिल्म प्रेम, महत्वाकांक्षा और पितृसत्तात्मक समाज की चुनौतियों को खूबसूरती से पेश करती है।

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