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हम भारतीयों का 'माँ' से गहरा लगाव है। माँ का ज़िक्र होते ही हमारे दिल में इमोशन्स के सागर उमड़ पड़ते हैं। तभी तो मोदी जी भी माँ पर ट्वीट करते हुए इमोशन शब्द का इस्तेमाल करना नहीं भूलते। कुछ लोग मां का सम्मान तो बहुत करते हैं लेकिन औरत के दूसरे रूपों को नीचा दिखाने से तनिक भी नही हिचकिचातें।
माँ होने के जन्म देने और पालने के अलावा दो और मतलब हैं - पहला वो अच्छाई और कुर्बानी की मूरत चुप-चाप, बेहिसाब दर्द झेलने वाली हैं और दूसरा वो इज्जत है जिसकी रक्षा करना पूरी दुनिया का कर्तव्य है। समाज ने हर उस वस्तु, जानवर या इंसान को माँ का दर्जा दिया है जिसकी वो इंसान या वस्तु होने के तौर पर रक्षा नहीं कर सका। उदाहरण के लिए धरती या गाय को ही देख लीजिये, इन दोनों को माँ की उपाधि दी गयी है क्योंकि इनके साथ हुए शोषण का और इनकी रक्षा के महत्व का कोई और तर्क नहीं दिया जा सका।
"पूत कपूत सुना है पर ना माता सुनी कुमाता", ये कहावत हम बचपन से सुनते आये हैं। इसका अर्थ है कि बेटा कितना भी बुरा हो, कितने भी माँ पर ज़ुल्म करले, माँ फ़िर भी उसका भला ही चाहेगी और ये सच भी है क्योंकि ऐसा नहीं करने पर औरत को माँ के नाम पर कलंक माना जाता है। शायद इसलिए कभी एक माँ अपने रेपिस्ट बेटे को भी डिफेंड करने की हद तक चली जाती है क्योंकि "माँ तो माँ होती है ना" और शायद इसीलिए मां का सम्मान इतने बड़े लेवल पर होता है।
"भगवान हर जगह नहीं रहता इसलिये तो उसने माँ बनाई है",
"एक माँ ही जानती है कि उसके प्यारे लाडले को क्या चाहिए",
"माँ की बद्दुआ भी दुआ बनकर लगती है"
ये कुछ फ़िल्मो के फेमस डायलॉग हैं, जिसमें माँ के गुणों और ताकतों का ज़िक्र है। हर फ़िल्म का टाइटल भले अलग हो पर उसमें मुख्य किरदार निभाने वाले शख़्स की माँ मदर इंडिया ही होती है। इन माँओं को सब पता है, ये अंतर्यामी हैं। नींद में भी अपने बच्चों की तकलीफ़ भाँप लेती हैं। और ये केवल फिल्मों तक सीमित नहीं है, टेलीविज़न ऐड्स का भी यही हाल है। आज कल हर दूसरे प्रोडक्ट के ऐड में माँ का टच डाल ही देते हैं क्योंकि "एक माँ से बेहतर कौन जानता है कि उसके परिवार के लिए क्या सबसे बेहतर है?"
आपने कंगना और दिलजीत के बीच हुए ट्विटर वार को तो देखा ही होगा। कंगना किसान आंदोलन में भाग लेने वाली एक बुज़ुर्ग औरत को शाहीन बाग़ की बिल्किस बानो से कंफ्यूज़ कर लेती हैं और कहती हैं कि इन्हे 100 रुपए देकर लाया गया है। इस पर दिलजीत दोसांझ जवाब देते हुए कहते हैं कि "तुम्हें बात करने की तमीज़ नहीं है, हम अपनी माँओं को भगवान की तरह पूजते हैं"।
तो क्या इसका ये अर्थ समझें कि माँ के अलावा हर औरत का ज़लील होना तार्किक है या दुनिया की हर औरत का माँ होना ज़रूरी है? ये दोनों बातें अलग होकर भी जुड़ी हुई हैं। पहली बात, एक औरत को माँ बने बिना अधूरा माना जाता है। हर स्त्री का माँ बनना ज़रूरी है वरना उसका जीवन अधूरा माना जाता है। समाज उन स्त्रियों को नीच नज़र से देखता है जो या तो बाँझ होती हैं या बच्चा न करने का फैसला करती हैं। दूसरी बात, माँ के अलावा दुनिया की हर औरत अपमानित की जा सकती है। मंटो लिखते हैं कि 'हम औरत उसी को समझते हैं जो हमारी घर की हो, बाकी हमारे लिए कोई औरत नहीं होती बस गोश्त की दुकान होती है'। यानी कि अपनी रक्षा के लिए भी औरत का माँ बनना ज़रूरी है।
हमने मदरहुड को इतना पूज्य बना दिया है कि यदि कोई स्त्री बच्चा गिरवाना चाहे या सरोगेट बनना चाहे तो उसे खूनी या वैश्या कह दिया जाता है। तभी तो motherhood के एथिक को बचाने के लिए 2019 के सरोगेसी रेगुलेशन बिल में सरकार ने सरोगेसी रेगुलेट करने के लिए केवल 'एथिकल सरोगेसी' को लीगल किया और कमर्शियल सरोगेसी को ग़ैर कानूनी बना दिया यानी कि कोई भी औरत कमाई के लिए अपनी कोख गिरवी नहीं रख सकती।
माँ को सम्मानित करने और उसकी रक्षा करने के नाम पर हमने न केवल उसकी ऑथोरिटी छीनी है, बल्कि उसे और असुरक्षित कर दिया है। जब भी देश में किसी लड़की का बलात्कार होता है तो उसे 'माँ' या 'बेटी' बनाकर ही उसके लिए इंसाफ़ की गुहार लगाई जाती है लेकिन ये दाँव उल्टा पड़ जाता है। जितना औरतों को माँ यानी "सम्मान" बनाया जाता है, उतना उनके सम्मान पर हमला होने का खतरा बढ़ जाता है। लोग साधारण सी लड़ाई में भी दूसरों की माँ बहन का रेप करने पर उतर आते हैं। इस तरह से औरत माँ बनकर भी शिकार होती है।
ये सच बात है कि हर किसी का अपने माँ के लिए इमोशनल जुड़ाव होता है इसलिए मां का सम्मान भी होता है पर क्या स्त्री को माँ होने तक सीमित करना सही है? क्या स्त्री का अपने बारे में सोचने का अधिकार नहीं है? ज़रा सोचियेगा।
पढ़िये: सास – बहू का रिश्ता माँ – बेटी के रिश्ते जैसे क्यों नहीं हो सकता ?
माँ होने के जन्म देने और पालने के अलावा दो और मतलब हैं - पहला वो अच्छाई और कुर्बानी की मूरत चुप-चाप, बेहिसाब दर्द झेलने वाली हैं और दूसरा वो इज्जत है जिसकी रक्षा करना पूरी दुनिया का कर्तव्य है। समाज ने हर उस वस्तु, जानवर या इंसान को माँ का दर्जा दिया है जिसकी वो इंसान या वस्तु होने के तौर पर रक्षा नहीं कर सका। उदाहरण के लिए धरती या गाय को ही देख लीजिये, इन दोनों को माँ की उपाधि दी गयी है क्योंकि इनके साथ हुए शोषण का और इनकी रक्षा के महत्व का कोई और तर्क नहीं दिया जा सका।
"पूत कपूत सुना है पर ना माता सुनी कुमाता", ये कहावत हम बचपन से सुनते आये हैं। इसका अर्थ है कि बेटा कितना भी बुरा हो, कितने भी माँ पर ज़ुल्म करले, माँ फ़िर भी उसका भला ही चाहेगी और ये सच भी है क्योंकि ऐसा नहीं करने पर औरत को माँ के नाम पर कलंक माना जाता है। शायद इसलिए कभी एक माँ अपने रेपिस्ट बेटे को भी डिफेंड करने की हद तक चली जाती है क्योंकि "माँ तो माँ होती है ना" और शायद इसीलिए मां का सम्मान इतने बड़े लेवल पर होता है।
1.फ़िल्मों और विज्ञापनों में माँ का रोल (maa ka sammaan)
"भगवान हर जगह नहीं रहता इसलिये तो उसने माँ बनाई है",
"एक माँ ही जानती है कि उसके प्यारे लाडले को क्या चाहिए",
"माँ की बद्दुआ भी दुआ बनकर लगती है"
ये कुछ फ़िल्मो के फेमस डायलॉग हैं, जिसमें माँ के गुणों और ताकतों का ज़िक्र है। हर फ़िल्म का टाइटल भले अलग हो पर उसमें मुख्य किरदार निभाने वाले शख़्स की माँ मदर इंडिया ही होती है। इन माँओं को सब पता है, ये अंतर्यामी हैं। नींद में भी अपने बच्चों की तकलीफ़ भाँप लेती हैं। और ये केवल फिल्मों तक सीमित नहीं है, टेलीविज़न ऐड्स का भी यही हाल है। आज कल हर दूसरे प्रोडक्ट के ऐड में माँ का टच डाल ही देते हैं क्योंकि "एक माँ से बेहतर कौन जानता है कि उसके परिवार के लिए क्या सबसे बेहतर है?"
2.माँ बनने को इतनी एहमियत क्यों दी गयी है?
आपने कंगना और दिलजीत के बीच हुए ट्विटर वार को तो देखा ही होगा। कंगना किसान आंदोलन में भाग लेने वाली एक बुज़ुर्ग औरत को शाहीन बाग़ की बिल्किस बानो से कंफ्यूज़ कर लेती हैं और कहती हैं कि इन्हे 100 रुपए देकर लाया गया है। इस पर दिलजीत दोसांझ जवाब देते हुए कहते हैं कि "तुम्हें बात करने की तमीज़ नहीं है, हम अपनी माँओं को भगवान की तरह पूजते हैं"।
तो क्या इसका ये अर्थ समझें कि माँ के अलावा हर औरत का ज़लील होना तार्किक है या दुनिया की हर औरत का माँ होना ज़रूरी है? ये दोनों बातें अलग होकर भी जुड़ी हुई हैं। पहली बात, एक औरत को माँ बने बिना अधूरा माना जाता है। हर स्त्री का माँ बनना ज़रूरी है वरना उसका जीवन अधूरा माना जाता है। समाज उन स्त्रियों को नीच नज़र से देखता है जो या तो बाँझ होती हैं या बच्चा न करने का फैसला करती हैं। दूसरी बात, माँ के अलावा दुनिया की हर औरत अपमानित की जा सकती है। मंटो लिखते हैं कि 'हम औरत उसी को समझते हैं जो हमारी घर की हो, बाकी हमारे लिए कोई औरत नहीं होती बस गोश्त की दुकान होती है'। यानी कि अपनी रक्षा के लिए भी औरत का माँ बनना ज़रूरी है।
हमने मदरहुड को इतना पूज्य बना दिया है कि यदि कोई स्त्री बच्चा गिरवाना चाहे या सरोगेट बनना चाहे तो उसे खूनी या वैश्या कह दिया जाता है। तभी तो motherhood के एथिक को बचाने के लिए 2019 के सरोगेसी रेगुलेशन बिल में सरकार ने सरोगेसी रेगुलेट करने के लिए केवल 'एथिकल सरोगेसी' को लीगल किया और कमर्शियल सरोगेसी को ग़ैर कानूनी बना दिया यानी कि कोई भी औरत कमाई के लिए अपनी कोख गिरवी नहीं रख सकती।
3.क्या औरत माँ बनकर सुरक्षित हैं?
माँ को सम्मानित करने और उसकी रक्षा करने के नाम पर हमने न केवल उसकी ऑथोरिटी छीनी है, बल्कि उसे और असुरक्षित कर दिया है। जब भी देश में किसी लड़की का बलात्कार होता है तो उसे 'माँ' या 'बेटी' बनाकर ही उसके लिए इंसाफ़ की गुहार लगाई जाती है लेकिन ये दाँव उल्टा पड़ जाता है। जितना औरतों को माँ यानी "सम्मान" बनाया जाता है, उतना उनके सम्मान पर हमला होने का खतरा बढ़ जाता है। लोग साधारण सी लड़ाई में भी दूसरों की माँ बहन का रेप करने पर उतर आते हैं। इस तरह से औरत माँ बनकर भी शिकार होती है।
ये सच बात है कि हर किसी का अपने माँ के लिए इमोशनल जुड़ाव होता है इसलिए मां का सम्मान भी होता है पर क्या स्त्री को माँ होने तक सीमित करना सही है? क्या स्त्री का अपने बारे में सोचने का अधिकार नहीं है? ज़रा सोचियेगा।
पढ़िये: सास – बहू का रिश्ता माँ – बेटी के रिश्ते जैसे क्यों नहीं हो सकता ?