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"मर्दानगी" क्या है? क्या हैं इसके नुकसान?

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Swati Bundela
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पिछले साल पालघर में तीन साधुओं की भीड़ ने मार-मार कर हत्या करदी थी। उस घटना की खूब वीडियोज़ वाइरल हुई थीं, लेकिन जहाँ मीडिया हाउसेस इस केस में हिंदू-मुस्लिम ऐंगल ढूँढ़ने में लगीं थीं, वहीं मेरा ध्यान इस लिंचिंग के दूसरे पहलू की तरफ़ जा रहा था : हिंसक मर्दानगी। ये एक ऐसी चीज़ है जो हमारी आँखों के सामने होती है, फ़िर भी हम इसे नहीं देख पाते। आखिर उन लोगों को इतनी बेरहमी से क्यों पीटा गया? अगर वो चोर थे तो उन्हें पुलिस को सौंपा जा सकता था, ख़ुद सज़ा देने क्यों पंहुच गए गाँव वाले? इन सवालों का एक ही जवाब है, लोगों की 'मर्दानगी' ने उन्हें ये करने पर मजबूर किया। उन्हें ये साबित करना था कि वो अपने गाँव की सुरक्षा कर सकते हैं और अगर कोई उनके रहते हुए गाँव को नुकसान पंहुचाने की कोशिश करेगा तो वो उसे सबक ज़रूर सिखाएंगे। इसे लोग अपना हक और शान समझते हैं।

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खैर, ये तो न्यूज़ की बात हो गयी। आप अपने आस पास की घटनाएँ ही उठा लीजिए, जहाँ एक पुरुष खाने में नमक कम होने की वजह से प्लेट फ़ेक देता है, वर्कर्स से गलती हो जाने पर गाली बकने लगता है या अपना सारा गुस्सा पत्नी को मार कर उतार लेता है; ये सब कुछ पितृसत्ता द्वारा बनाई गयी 'मर्दानगी' के कारण ही होता है।

"मर्दानगी" के पैमाने क्या हैं? (Mardangi aur uske nuksan) 

मर्दानगी के कई पैमाने होते हैं। ये पैमाने हमारा परिवार और समाज डायरेक्ट और इनडायरेक्ट रूप से पुरुषों में डालने की कोशिश करता है। ये वो पैमाने हैं जिन पर हर पुरुष को खरा उतरना ही पड़ता है वरना उन्हें ‘नामर्द’ की श्रेणि में डाल दिया जाता है। बचपन से ही पुरुषों को मर्द बनाने की तैयारी शुरू कर दी जाती है, जब उन्हें "लड़कियों जैसे रोने" को मना किया जाता है या "मर्द को दर्द नहीं होता" जैसी बातें सिखाई जाती हैं और बड़े होने तक उन्हें पूरी तरह से मर्दाना बना दिया जाता है।

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जानिए क्या हैं ये मर्द बनने के तरीके -



1. "लड़के रोते नहीं हैं"

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लड़कों की परवरिश में केवल ग़ुस्सा, हिंसा और बहादुरी जैसी भावनाएं सिखाई जाती हैं। उन्हें प्रेम, दया और करुणा जैसी भावनाओं से कोसों दूर रखा जाता है क्योंकि समाज के मुताबिक ये कमज़ोरों की निशानी है और "मर्द" कभी कमज़ोर नहीं हो सकते। यदि कोई पुरुष रोता हुआ दिख जाए तो उसका 'लड़की' या 'छक्का' बोल कर मज़ाक उड़ाया जाता है। जो पुरुष अपने इमोशन्स को कंट्रोल करने में सक्षम हो जाते हैं, उन्हें सच्चे मर्द का टैग मिल जाता है और जो ऐसा नहीं कर पाते उन्हें मर्दों के नाम पर कलंक बोल दिया जाता है। इस तरह से ‘मर्द’ बनने की प्रकिया में पुरुषों की अभिव्यक्ति की आज़ादी छिन जाती है।

2. "लड़कों को रफ़ और टफ़ होना चाहिए"

मर्दों को केवल सख्त और रूड स्वभाव रखने की आज़ादी है। उन्हें हर परिस्थिति का सामना करते आना चाहिए। उन्हें बॉडिली स्ट्रॉंग होना चाहिए। मर्दों को अपने परिवार और बच्चों के प्रति भी स्नेह और ममता रखने का अधिकार नहीं होता। परिवार में वो सिर्फ़ डराने-धमकाने और लोगों को डिसिप्लिन में रखने का काम करते हैं। इस सख़्त स्वभाव का होना, मर्दों की शान के लिए ज़रूरी है, इसी के द्वारा वे संसार में अपना रुतबा कायम करते हैं। हम सबने अपने परिवार, स्कूलों, कॉलेजों में ज़्यादातर ऐसे ही पुरुष देखे हैं जिनके पास जाने में डर लगता हो। हम जो बात आसानी से अपनी माँ से कह पाते हैं, वही बात पिता के सामने कहने में हालत खराब हो जाती है।

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3. "मर्दों को हाथ उठाना पड़ता है"

जब एक बच्चा अपने पिता को माँ पर हाथ उठाते हुए देखता है तो उसके ज़हन में ये बात बैठ जाती है कि पावर इस्टैबलिश करने के लिए हिंसा का सहारा लेना ही पड़ता है। हिंसा ही पुरुष को मर्दाना बनाता है। बचपन से जिन लोगों की कम्पनी में पुरुष रहते हैं, वो भी हिंसा को ही हथियार बना कर दूसरों से लड़ते हैं और परेशान करते हैं। इस तरह की अपब्रिंगिंग से मर्द हिंसा को अपने जीवन का हिस्सा बना लेते हैं। मर्दों को अपने परिवार को प्रोटेक्ट करने के लिए व लोगों को कंट्रोल करने के लिए, हाथ उठाना ही पड़ता है।

4. "सत्ता मर्दों के हाथ में होनी चाहिए"

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मर्द बनने के लिए हाथ में सत्ता का होना बहुत ज़रूरी है इसीलिए परिवार का मुखिया हमेशा पुरुष ही होता है। सच्चा मर्द बनने के प्रोसेस में पुरुषों को राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक सत्ता हासिल करनी पड़ती है। इस वजह से पुरुषों का बाकी जेंडर्स से तो सामना होता ही है, उनमें आपसी लड़ाइयाँ भी होती हैं। सच्चा मर्द वही है जो दूसरों को पावर क्लेम ना करने दें। मर्द हमेशा स्त्रियों को आर्थिक स्वतंत्रता और राजनीति जैसी चीज़ों से दूर रखते हैं ताकि उनकी सत्ता छिन ना जाए।

5. "औरतें मर्दों के अधीन होती हैं"

मर्दानगी का सबसे महत्वपूर्ण पैमाना है औरतों को अपने अधीन रखना यानी कि ख़ुद से नीचे रखना। ये मर्दानगी ही औरतों पर ज़ुल्म भी करती है और उन्हें ज़ुल्मों से बचाने का वादा भी करती है। मर्दों का महिलाओं पर अपनी शारीरिक ताकत का इस्तेमाल करना ज़रूरी होता है, ताकि औरतों को कंट्रोल में रखा जा सके। यही मर्दानगी पुरुषों को फिजिकली अब्यूसिव और रेपिस्ट भी बनाती है।

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6. "मर्द जनाना नहीं होते"

मर्द फेमिनिन नहीं हो सकते। उनके अंदर स्त्रियों जैसे एक भी गुण नहीं होने चाहिए। यदि कोई पुरुष पिंक कलर की शर्ट पहन ले या बाल बढ़ा ले तो लोगों की आईब्रोस उठ जाती हैं। यही कारण है कि मर्द बनने के लिए होमोसेक्शुआलिटी के कांसेप्ट को भी नकारना पड़ता है। मर्दों को स्त्रियों से इस तरह अलग किया जाता है कि वो औरतों का ज़िक्र करने से भी संकोच करते हैं, उनकी तरह काम करना तो दूर की बात है। औरतों की बात करना ही मर्दों के लिए नीच काम है।

7. "मर्द रखवाली करते हैं"

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असली मर्द अपने परिवार के लोग, समाज की प्रतिष्ठा और मोरल वैल्यूज़ की रखवाली करते हैं। जो भी इनमें से किसी भी चीज़ को नुकसान पंहुचाता है, उन्हें सज़ा देना मर्दों का काम है। मॉब लिंचिंग, ऑनर किलिंग, और रेप करने वाले लोग मर्दानगी के उसूलों पर ही चलते हैं।

'मर्दानगी' के नुकसान क्या हैं?

'मर्दानगी' पुरुषों को एक निश्चित तरीके से व्यवहार करने पर मजबूर करती है। 'मर्दानगी' पुरुषों के वास्तविक शारीरिक गुणों से अलग है क्योंकि इसमें पुरुषों को सामाजिक और कल्चरल रूप से मर्द बनाया जाता है, यानी कि ये मानसिक गुण ज़्यादा है। यह सभी पुरुषों को कुछ हद तक प्रभावित करता ही है। ना केवल पुरुषों को बल्कि ये समाज के हर व्यक्ति को निगेटिवली इफेक्ट करती है।

जानिए 'मर्दानगी' किस तरह से समाज को नुकसान पंहुचाती है -



1. इससे पुरुषों की इंसानियत खत्म होती है

मर्दानगी के ढाँचे में फिट होते-होते, पुरुष अपनी इंसानियत ही खो बैठते हैं और कई बार क्रिमिनल बन जाते हैं। अपनी पवर एक्सरसाइज़ करने के चक्कर में कई मर्द हैवान हो जाते हैं और बेसिक ह्यूमन वैल्यूज़ भी भूल जाते हैं। इनके लिए अपना रौब इतना ज़रूरी हो जाता है कि उसे बचाने के लिए ये किसी भी हद तक जाने को तैयार हो जाते हैं। इंसान वो है जो दूसरों को चैन से जीने दे और हो सके तो दूसरों की ज़िंदगी बहतर बनाने के लिए काम करे, लेकिन ये मर्द तो दूसरों की ज़िंदगी पर अपना कंट्रोल स्थापित करने के लिए, उनकी ज़िंदगी नर्क कर देते हैं।

2. मर्दानगी लैंगिक समानता में बाधा है

पितृसत्ता द्वारा गढ़ी इस मर्दानगी के कांसेप्ट ने इस बात को स्थापित किया है कि मर्द दूसरों की तुलना में स्वाभाविक रूप से बेहतर हैं सिर्फ़ इसलिए कि वो मर्द हैं। जो पुरुष मर्दानगी के नियमों का पालन करते हैं वो कभी भी लैंगिक समानता का समर्थन नहीं कर सकते, बल्कि ये तो लैंगिक समानता में बाधा बनने का ही काम करते हैं। ये कभी भी अन्य जेंडर के लोगों को बराबरी का हक नहीं दे सकते, ये सिर्फ़ उन्हें दबा कर सकते हैं। इनकी मानसिकता केवल पीड़ा पंहुचाने की होती है।

3. लोगों की मेंटल हेल्थ पर बुरा असर पड़ता है 

लोगों के जीवन में ऐसे पुरुष होते हैं जो ख़ुद को मर्द साबित करने में लगे रहते हैं, उनकी फिजिकल और मेंटल हेल्थ पर बुरा असर पड़ता है। जिन परिवारों में ऐसे पुरुष होते हैं, वहाँ मुख्य रूप से स्त्रियाँ और बच्चे शोषण का शिकार होते हैं और अकसर डिप्रेशन और एन्गज़ाइटी डिसॉर्डर जैसी बीमारियों का सामना करते हैं। खैर, ये नुकसान ख़ुद इन मर्दों को भी सहना पड़ता है क्योंकि ये तो अपनी मेंटल हेल्थ से जुड़ी परेशानियां ऐड्रेस भी नहीं कर पाते क्योंकि समाज के अनुसार मर्द तो मेंटली स्ट्रॉंग होते हैं ना।

4. मर्दों को अपने दुख छुपाने पड़ते हैं

मर्दों को कितनी भी बड़ी समस्या क्यों ना हो, वो टूट कर रो नहीं सकते, अपनी भावनाएं व्यक्त नहीं कर सकते। इन्हें तकलीफ़ भी हो तो अकेले सह लेते हैं क्योंकि सबके सामने तो इन्हें मज़बूत बन कर ही रहना पड़ता है। ना तो ये अपने करीबियों से दुख बाँट पाते हैं और ना किसी प्रोफेशनल से। इमोशन्स दबाते दबाते एक समय के बाद इनकी स्थिति खराब हो जाती है और ये इनके स्वभाव में झलकता है। एक "मर्द" अकसर अकेलेपन का शिकार होता है।

5. मर्द अपने असली रूप को स्वीकार नहीं कर पाते

मर्दानगी के पितृसत्तात्मक रूल्स के सबसे बुरे पहलुओं में से एक पुरुषों की एक-दूसरे के साथ लगातार प्रतियोगिता में रहने की होड़ है। मर्दों के जीवन का लगभग हर कदम खुद को अन्य पुरुषों, या अन्य व्यक्तियों से बेहतर दिखाने के लिए उठाया जाता है। इससे वे अपनी आइडेंटिटी को ना तो एक्सेप्ट कर पाते हैं और ना इंजॉय कर पाते हैं। मर्दानगी के खोखले पैमाने पुरुषों को बदल कर रख देते हैं जिससे वो रियल नहीं रह पाते।







ये थे mardangi ki paribhasha aur uske nuksan.



मर्दानगी मर्दानगी के नुकसान
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