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पितृसत्ता को बढ़ावा देते हैं भारतीय टीवी सीरियल्स

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Swati Bundela
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भारतीय टीवी सीरियल्स औरतों के बीच मशहूर हैं। औरतें अपना सारा काम डबल स्पीड और एनर्जी से करती हैं ताकि उनका फेवरेट सीरियल आने से पहले काम खत्म हो जाए और वो आराम से बैठ कर इन शोज़ का आनंद ले सकें। ये शोज़ ही उनके एंटरटेनमेंट का ज़रिया है। लेकिन ये सीरियल्स इतने मशहूर इसलिए नहीं है कि ये बेज़ुबाँ, बेबस, पीड़ित महिलाओं की आवाज़ सुनाते हैं या बेहतरीन प्रोग्रेसिव कंटेंट बनाते हैं। स्त्रियों के दम पर चलने वाले ये शोज़, स्त्रियों को मुख्य किरदार बना कर स्त्री विरोधी कंटेंट बनाने के लिए मशहूर हैं।

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सीरियल्स का घटिया कंटेंट -



इन सीरियल्स में आपको दो तरह की स्त्रियाँ नज़र आएँगी - एक वो जो सुबह से रात तक काम करती हैं, शादी से पहले माँ-बाप और शादी के बाद पति को भगवान मानती हैं, हमेशा साड़ी या सूट पहनती हैं, अपने पति को बुरी स्त्रियों के चंगुल से बचाती हैं और हमेशा मर्यादा में रहती हैं यानी कि इनमे "आदर्श भारतीय नारी" के सभी गुण होते हैं और दूसरी वो जो मॉडर्न होती हैं, वेस्टर्न कपड़े पहनती हैं, दूसरों का घर तोड़ती हैं, बड़ों की इज़्ज़त नहीं करतीं, घर का कोई काम नहीं जानती, बिगड़ी हुई होती हैं और मर्दों को काबू में रखतीं हैं यानी कि "आइडियल मॉडर्न नारी"।

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स्टोरी चाहे जो भी हो, इन सीरियल्स के निर्देशन में एक चीज़ कॉमन है - 'पितृसत्ता'। उदाहरण के तौर पर ये दो कहानियाँ देखिये -



"मीरा एक मॉडर्न लड़की है। वो अपनी लाइफ़ अपनी शर्तों पर जीना चाहती है। वो छोटे कपड़े पहनती है, बार जाती है और लोगों को पलट कर जवाब देती है। मीरा का पूरा परिवार मीरा से परेशान है, उसे सुधारना चाहता है पर वो है कि अपनी मर्ज़ी से जीने की ज़िद छोड़ती ही नहीं। परिवार के लोग उसे डाँटते हैं, मारते हैं, उसे ज़बरदस्ती घर में बन्द रखते हैं। बहुत टॉर्चर होने के बाद आखिर एक दिन मीरा को समझ आ ही जाता है कि उसने मॉडर्न होकर कितनी बड़ी गलती की। वो सबसे माफ़ी माँगती है और मॉडर्न से संस्कारी बन जाती है"
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"अक्षरा एक बहुत बड़े घर की लड़की है, जो पढ़ी लिखी है और बेहद संस्कारी है। एक दिन वो मार्केट जाती है और वहाँ उसे कॉलेज का कोई लड़का दिख जाता है। वो 2 मिनट खड़े होकर उससे बात करती है। उसके पापा का कोई रिश्तेदार ये सब देख लेता है और अक्षरा के घर जाकर बता देता है। अक्षरा के पापा अपनी बेटी को सज़ा-ए-शादी सुनाते हैं और वो चुप चाप मान लेती है। वो अपने ससुराल जाती है और खुशी-खुशी सारे रिश्ते निभाती है। उसे अपने पापा के फै़सले पर गर्व है"

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ये है दो मशहूर टीवी सीरियल्स की घिसी पीटी पितृसत्तात्मक स्टोरी लाइन्स जिसमें संस्कार के नाम पर लड़कियों के साथ जबरदस्ती करना और लड़कियों का चुप-चाप सब सहना नॉर्मलाइज़ किया जाता है। इन शोज़ के मुताबिक लड़की की ज़िंदगी में शादी से ज़रूरी कुछ भी नहीं है। शोज़ के ट्रेलर और नाम में भले आपको क्रिएटीविटी नज़र आये पर अंदर वही बकवास कंटेंट देखने को मिलेगा। जैसे सीरियल 'मन की आवाज़ प्रतिज्ञा' में प्रतिज्ञा एक समझदार, पढ़ी-लिखी, रूढ़ियों के खिलाफ़ बोलने वाली लड़की है लेकिन उसकी लाइफ का गोल भी शादी है। वो शादी करती है और अपने ससुराल वालों को सुधारने का ज़िम्मा उठाती है। ऐसे ही सीरियल 'दिया और बाती हम' में IPS ऑफिसर बनने का सपना देखने वाली संध्या अपनी सास के अत्याचारों को माँ का प्यार बोलकर डिफेंड करती है और सास को खुश रखने के लिए अपना सपना कुर्बान करने को भी तैयार हो जाती है। इस तरह से इन सीरियल्स में पितृसत्ता को महिला सशक्तिकरण का चोला पहनाया जाता है।

सीरियल्स में दिखते हैं कि लड़की का कोई भी सपना उसकी शादी से बड़ा नहीं होता। वो अपनी शादी को बचाने के लिए कुछ भी करेगी। अगर गलती से किसी औरत को बाहर जाके काम करने की इजाज़त मिल भी जाए तो वो बहू होने की ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकती। वो खुशी-खुशी सर पर पल्लू डाल कर ऑफिस जाएगी और घर आकर दोगुना काम करेगी।

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इन शोज़ पर मुख्य किरदार निभाने वाली ज्यादतर महिलायें गोरी और सुंदर होती हैं क्योँकि "शादी के लिए लड़की का सुंदर होना ज़रूरी है" और अगर किसी शो में साँवली लड़की को कास्ट किया गया है तो मान लीजिये कि पूरा सीरियल 'इससे शादी कौन करेगा' के इर्द गिर्द ही घूमेगा जैसे "सात फेरे"। जो लड़कियाँ सोसाइटल ब्यूटी स्टैंडर्ड को कन्फर्म नहीं करती, उन्हें बेचारी बना दिया जाता है और उनसे शादी करने वालों को भगवान। मॉडर्न लड़कियों को बेहद खराब ढंग से पेश किया जाता है। वो इतनी पढ़ी लिखी होने के बाद भी दूसरों के घर तोड़ने में और संस्कारी बहू के खिलाफ़ साज़िश करने में ही जीवन गुज़ार देती हैं और सीरियल खत्म होते-होते या तो बदल जाती हैं या घर से निकाल दी जाती हैं।



छोटे पर्दो पर सदियों से चली आ रही रूढ़ीवादी विचारधाराओं को बढ़ावा मिलता है जो औरतों को किचन और पुरुषों को ऑफिस तक सीमित करती है। ये धारावाहिक "औरत ही औरत की दुश्मन होती है", इस सोच को भी प्रचलित करते हैं।
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क्या हम ऐसे शोज़ देखने चाहिए?



हमारा समाज पहले ही पितृसत्तात्मक है, ऊपर से ऐसे शोज़ उसे क्रिटिसाइज़ करने की बजाये पुनः स्थापित करने का काम करते हैं। इन सीरियल्स ने हमारे मन में अच्छी और बुरी स्त्री की एक तस्वीर बना दी है जो बिल्कुल अनरियलिस्टिक है। कौनसी स्त्री 24 घन्टे मेकअप या गेहने लादे बैठती है? कौनसी स्त्री किसी का बच्चा चुराती है? कौनसी स्त्री अपनी सास को मारने की साज़िश करती है? किस स्त्री के जीवन का एक मात्र गोल अपनी देवरानी या जेठानी से बदला लेना है? ये सब सिर्फ़ इन सीरियल्स में होता है और लगभग हर सीरियल में होता है।
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हमे ऐसे शोज़ की ज़रूरत है जो किसी स्त्री के जीवन का संघर्ष दिखाये, उसे अपने सपनों के पीछे भागते हुए दिखाये, जो पुरुषों को घर का काम करते और महिलाओं को सपोर्ट करते दिखाये। ऐसे सीरियल्स जो समाज की बुराइयों को बुराइयों की तरह दिखाएँ, संस्कार की तरह नहीं।

आपको जो डिमांड करेंगे, वही सपलाई किया जाएगा।



आप ऐसा कंटेंट माँगिए जो आप गर्व से अपने परिवार के साथ देख सकें। क्या आप अपनी बहू के साथ बैठ कर एक बहू को टॉर्चर होते देख सकती हैं? क्या बेटे के साथ बैठ कर एक लड़के को अपनी पत्नी पर हाथ उठाते देख सकती हैं? नहीं न। आप इन सीरियल्स से अपनी कहानी माँगिये, अपनी बेटी का सपना माँगिये, बहू की आज़ादी माँगिए और ये न मिलने पर इन शोज़ को देखना बन्द कर दीजिये। आपको एंटरटेनमेंट का इससे अच्छा सोर्स मिल जाएगा लेकिन एंटरटेनमेंट के नाम पर अपने स्त्री होने का अनादर मत करिये।

पढ़िए : पितृसत्ता क्या है? कैसे लड़ सकते हैं इससे हम ?

#फेमिनिज्म भारतीय टीवी सीरियल्स में पितृसत्ता
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