Uttrayeni Parv: उत्तराखंड में उत्तरायणी या घुघुतिया त्यौहार बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। इसका इतिहास बहुत प्राचीन है। एक लोक कथा के अनुसार, कुमाऊं में चंद्रवंशी राजाओं का राज्य था। उस समय राजा कल्याण चंद नाम का राजा राज्य किया करता था। उनकी कोई संतान नहीं थी, न ही कोई उत्तराधिकारी। ऐसे में उनका मंत्री सोचने लगा कि राजा के मृत्यु उपरांत कुमाऊं में राज्य वही करेगा। वह आए दिन अपने राजा बनने के सपने देखता रहता।
एक दिन की बात है। राजा कल्याण चंद अपनी पत्नी के साथ बागनाथ मंदिर गए। वहां उन्होंने संतान प्राप्ति का वर मांगा। कुछ दिन बाद उनके घर में पुत्र का जन्म हुआ। इस पुत्र का नाम उन्होंने निर्भय चंद रखा। पर उनकी पत्नी को यह नाम कहां सुहाता। वह अपने पुत्र को प्यार से घुघुती नाम से बुलाने लगीं। माता ने अपने पुत्र को एक माला पहनाई। घुघुती को वो माला प्रिय लगने लगी। ऐसे में जब भी घुघूती कुछ हठ करता, तो उसकी माता कहतीं कि वो उसकी मोती की माला काले कौवा को दे देंगी। जब भी घुघुती कुछ हठ करता, वो "काले कौवा काले, घुघूती माला खा ले" कहतीं। इतने में कौव्वे आ जाते। घुघूती की माता काले कौव्वों को कुछ न कुछ देकर विदा कर देतीं। धीरे-धीरे कौव्वों और घुघूती में दोस्ती बढ़ने लगी।
राजा के मंत्री ने जब देखा कि राजा की संतान हो गई है वह उसके पुत्र के ख़िलाफ़ षडयंत्र रचने लगा। एक दिन इसी षड्यंत्र में उसने राजा के पुत्र का खेलने के दौरान अपहरण कर लिया। उसे जंगल की ओर ले गया। एक कव्वे ने यह सब देख लिया और कांव-कांव करने लगा। घुघुती कौवे को देख कर रोने लगा और माला दिखाने लगा। कौवा पहचान गया। घुघूती से माला छीन ली। इतने में कौव्वे के बाक़ी साथी आ गए और उन्होंने मंत्री और उसके बाक़ी साथियों पर हमला बोल दिया। वह कौवा माला लेकर राजमहल को उड़ गया।
जब घुघुती की माता ने कव्वे के पास माला देखी तो उनसे रहा नहीं गया। वहां उपस्थित सब समझ गए कि कौवे को सब कहानी पता है। राजा कव्वे के साथ अपने घुड़सवारों सहित पुत्र की खोज में निकल गए। कव्वा सबको ले जाता हुआ जंगल के एक पेड़ के ऊपर बैठ गया। राजा ने देखा उस पेड़ के नीचे उनका पुत्र घुघुति सो रहा है। वह उसे उठा कर राज महल ले आए।
पुत्र को देखकर उसकी माता बहुत ख़ुश हुईं। उन्होंने इस ख़ुशी में बहुत सारे पकवान बनाए। और घुघुती को बोला कि वह कौवा को वह पकवान दे दे। इस तरह इस दिन से यह परंपरा चली आई और पूरी कथा कुमाऊं राज्य में फैल गई। यहीं से इसे घुघुतिया त्यौहार कहा जाने लगा और इसे बच्चों से जोड़ा जाने लगा। इसे बच्चों के त्योहार से भी जाना जाता है। मां की ममता को दिखाता, घुघुती और कौव्वों के बीच इस अटूट दोस्ती का प्रतीक घुघुतिया पर्व आज भी कौतूहल का विषय है। जगह-जगह इस पर्व की ख़ुशी में कौव्वों को विशेष रूप से भोजन दिया जाता है। कौव्वों को खाने के लिए बच्चे आमंत्रित करते हैं, कहते हैं–"काले कौवा काले, घुघूती माला खा ले"। बच्चे कौवे को खाने का निमंत्रण देते हुए, उनसे निवेदन करते हैं कि वह उनकी मम्मी के लिए सोने की चूड़ी लाए, भरा पूरा परिवार लाए।
एक दूसरी कथानुसार
ऐसे ही एक और कथा प्रचलित है। कुमाऊं में घुघुतिया नाम का राजा हुआ करता था। वह बहुत बीमार पड़ गया और ठीक नहीं हुआ। एक दिन एक ज्योतिषाचार्य ने राजा को बताया कि उसके ग्रहों के अनुसार उस समय उसकी मारक दशा चल रही है। ऐसे में अपने नाम के गुड़ और आटे के बने पकवान मकर संक्रांति के अगले दिन कौव्वों को खिलाएं तो उसका स्वास्थ ठीक हो जाएगा। कौवे को काल का प्रतीक माना जाता है। मकर संक्रांति के दूसरे दिन काले कौवे को राजा के नाम के गुण और आटे के पकवान खिलाया गए। तब से आज तक यही परंपरा चली आई। उत्तरायणी पर्व के दूसरे दिन कौव्वों को भोजन दिया जाने लगा।
इस तरह प्राचीन लोक-कथाओं से उपजा घुघुतिया त्यौहार आज भी देवभूमि उत्तराखंड में उसी प्रेम के साथ मनाया जाता है। आज भी कुमाऊं परिवार कौव्वों को उत्तरायणी पर्व के दूसरे दिन खाना देते हैं।