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योगिता भयाना का Aviation Industry में एक सक्सेसफुल कैरियर था। 2007 में उन्होंने अपनी जॉब छोड़ दी और रिफॉर्म्स के लिए काम करना शुरू कर दिया और ज्योति सिंह की मां के साथ उस आंदोलन में जुड़ गई, जिसने जूविनाइल जस्टिस लॉ में बदलाव लाया और रेपिस्ट की ऐज लिमिट 18 से 16 वर्ष कर दी गई। योगिता पीपल अगेंस्ट रेप्स इन इंडिया की फाउंडर हैं, जो सैक्सुअल वायलेंस के खिलाफ एक एनजीओ है। वह हंगर और रेप के खिलाफ कैंपेन भी चला रही है। वह निर्भया केस के लिए लड़ने में सबसे आगे थी।
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इस मुश्किल समय में, वह उन मरीजों के लिए बसों की व्यवस्था करवा रही में है, जो दिल्ली में फंस गए थे। उन्होंने कहा, "मेरे पास हमेशा पेशेंट्स के लिए एक सॉफ्ट कॉर्नर रहा है, वे सड़कों पर रह रहे हैं, उनके पास आईडी नहीं हैं, उनमें से ज्यादातर के पास फोन नहीं है, उनके लिए चीजों को ऑर्गेनाइज करना एक बड़ी चुनौती है। सबसे पहले हमें उन्हें इकट्ठा करना होता और उन्हें स्क्रीनिंग सेंटर्स पर ले जाना होता है, जहां वे टेंपरेचर की जांच करते हैं, फिर हमें उन्हें डीसी के ऑफिस में पहुंचाना होता है और जब सभी बॉक्सों पर टिक लगा दिया जाए तो वे बस में सवार हो सकते हैं।
बहुत सारी फॉर्मेलिटीज इस बात को ध्यान में नहीं रखते हैं कि वे माइग्रेंट वर्कर्स वैसे भी दिन-रात चल रहे हैं और सड़कों पर मर रहे हैं। इसे आसान बनाने के बजाय, सरकार ने इसे इतना कॉम्प्लिकेटेड बना दिया है कि यह हमारे लिए एक चैलेंज बन चुका है। जिसके कारण, मैंने अब तक आठ बसें भेजी हैं और मैं दो और भेजने की प्लानिंग कर रही हूं। लास्ट माइल कनेक्टिविटी एक और बड़ी चुनौती है। सरकार ने एनजीओ और सोनू सूद जैसे लोगों के लिए ही सारे काम छोड़ दिए है।
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फिलहाल, वह माइग्रेंट वर्कर्स की मदद करने में जुटी हुई है। खासकर, उन पेशेंट्स की मदद कर रही है, जो दिल्ली में फंस चुके हैं और अपने घर नहीं जा पा रहे।
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इस मुश्किल समय में, वह उन मरीजों के लिए बसों की व्यवस्था करवा रही में है, जो दिल्ली में फंस गए थे। उन्होंने कहा, "मेरे पास हमेशा पेशेंट्स के लिए एक सॉफ्ट कॉर्नर रहा है, वे सड़कों पर रह रहे हैं, उनके पास आईडी नहीं हैं, उनमें से ज्यादातर के पास फोन नहीं है, उनके लिए चीजों को ऑर्गेनाइज करना एक बड़ी चुनौती है। सबसे पहले हमें उन्हें इकट्ठा करना होता और उन्हें स्क्रीनिंग सेंटर्स पर ले जाना होता है, जहां वे टेंपरेचर की जांच करते हैं, फिर हमें उन्हें डीसी के ऑफिस में पहुंचाना होता है और जब सभी बॉक्सों पर टिक लगा दिया जाए तो वे बस में सवार हो सकते हैं।
बहुत सारी फॉर्मेलिटीज इस बात को ध्यान में नहीं रखते हैं कि वे माइग्रेंट वर्कर्स वैसे भी दिन-रात चल रहे हैं और सड़कों पर मर रहे हैं। इसे आसान बनाने के बजाय, सरकार ने इसे इतना कॉम्प्लिकेटेड बना दिया है कि यह हमारे लिए एक चैलेंज बन चुका है। जिसके कारण, मैंने अब तक आठ बसें भेजी हैं और मैं दो और भेजने की प्लानिंग कर रही हूं। लास्ट माइल कनेक्टिविटी एक और बड़ी चुनौती है। सरकार ने एनजीओ और सोनू सूद जैसे लोगों के लिए ही सारे काम छोड़ दिए है।
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