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अधिकांश पुरुषों के लिए समानता में विश्वास, उनकी सुविधा के अनुसार होता है. महिलाएं समान अधिकार की हकदार हैं, लेकिन जब घर के भीतर विशेषाधिकार को छोड़ने का सवाल उठता है, तो सब बदल जाता है.
पुरुषों के लिए अपने घर में समानता रखना मुश्किल हो जाता है
अमरिकी सोशियोलॉजिकल रिव्यू 2018 के अनुसार, 18 से 32 वर्ष के बीच के पुरुषों और महिलाओं में शिक्षा और आय के स्तरों के बीच लैंगिक पर समान दृष्टिकोण था. लेकिन जब परिवार और ज़िम्मेदारियों पर सब वापस आ गए. अधिकांश पुरुषों के लिए अपने घर में समानता रखना मुश्किल हो जाता है. और महिलाएं गृहिणी होने की भूमिका से जुड़ी रहती हैं, चाहे वह नौकरी करें या नहीं.
पितृसत्ता के खिलाफ आवाज़ नहीं उठानी चाहिए
भारतीय समाज में, जहां विशेषाधिकार का मतलब न केवल घरेलू कर्तव्यों से राहत है, बल्कि एक उच्च दर्जा भी है, पुरुषों को अपनी नारीवादी मान्यताओं का पालन करना कठिन लगता है. पुरुषों के अनुसार, कामकाजी पत्नी को भी घर आकर घर के कामों का अधिकांश हिस्सा खुद ही करना चाहिए. अपने दोस्तों और माता-पिता के सामने पति की बात माननी चाहिए और सम्मान करना चाहिए. पति को उच्चे तख़्त पर बिठाए रखना चाहिए और इस पितृसत्तात्मक तरीके के खिलाफ आवाज़ नहीं उठानी चाहिए.
महिलाएं बच्चों की बेहतर देखभाल करती हैं. उन्हें मातृत्व के लिए अपनी महत्वाकांक्षाओं को पीछे रखना चाहिए, यह उम्मीद की जाती है. एक और बहाना यह है कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में शारीरिक रूप से कमजोर हैं, इसलिए उनके लिए बाहरी दुनिया में जीवित रहना या संघर्ष करना कठिन होगा. इसलिए, उन्हें घर के अंदर कर्तव्यों का ध्यान रखना चाहिए और पुरुषों को बाहरी दुनिया से निपटने देना चाहिए.
पुरुष अहंकार को एक तरफ रख, पितृसत्ता को चुनौती दें
हमारा समाज पुरुषों का पक्ष लेता है. अगर महिलाओं को घरों के बाहर मुश्किल है, तो यह इसलिए है क्योंकि उनके आसपास का वातावरण उनके प्रति शत्रुतापूर्ण है. हमारे घरों में नारीवाद लेन की रुकावट पुरुस्दों का प्रतिरोध है. बदलाव तभी होगा जब पुरुष अहंकार को एक तरफ रख, पितृसत्ता को चुनौती दें. इसलिए हमने जो कुछ किया है वह मौसमी नारीवादियों की फसल है. जो नारीवाद का समर्थन करने में सहज हैं, बस उनके आधुनिक संवेदनशीलता दिखलाती है.
महिलाओं को आज कड़ा रुख अपनाने की जरूरत है और जब पुरुष साथी पुरानी आदतों में वापस आते हैं तो उन्हें आवाज़ उठानी चाहिए. हमें जो सबसे बड़ी लड़ाई लड़नी हैं, वह कार्यालयों या बसों या स्कूलों में नहीं, लेकिन अपने घरों में होनी है.
(यह आर्टिकल यामिनी पुस्तके भालेराव ने अंग्रेज़ी में लिखा है)