नारीत्व पर समाज की निगरानी: Mrunal Thakur और Bipasha Basu का मामला

हमारे समाज में औरतें दोहरी जंग लड़ रही हैं। एक तरफ़ समाज और पितृसत्ता की उम्मीदें हैं और दूसरी तरफ़ उनकी अपनी असली पहचान और चुनाव। इस कारण वह अपने आप को कहीं खो देती है-

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Rajveer Kaur
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Mrunal Thakur (Instagram)

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हाल ही में मृणाल ठाकुर का एक पुराना इंटरव्यू क्लिप सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ। इसमें उन्होंने बिपाशा बसु की बॉडी को लेकर ऐसा कमेंट कर दिया जिसने ट्रोलिंग और माफ़ी तक की नौबत ला दी। लेकिन सवाल सिर्फ़ एक इंटरव्यू या एक कमेंट का नहीं है। असली मुद्दा यह है कि आखिर कब तक महिलाओं के शरीर और उनके नारीत्व पर समाज निगरानी रखता रहेगा? चलिए पूरी बात जानते हैं-

नारीत्व पर समाज की निगरानी: Mrunal Thakur और Bipasha Basu का मामला

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हाल ही में सोशल मीडिया पर एक पुराना इंटरव्यू क्लिप जमकर वायरल हुआ, जिसमें अभिनेत्री मृणाल ठाकुर ने अपनी को-स्टार बातचीत के दौरान अभिनेत्री बिपाशा बसु की बॉडी पर टिप्पणी की थी। इंटरव्यू में जब अरिजीत तनेजा से पूछा गया कि क्या वे एक मस्कुलर महिला से शादी करना चाहेंगे, तो मृणाल ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि “अगर तुम्हें मर्दाना लड़की से शादी करनी है जिसके मसल्स हों, तो बिपाशा से शादी कर लो।” उन्होंने आगे यह भी जोड़ा कि “सुनो, मैं बिपाशा से कहीं बेहतर हूँ।”

क्लिप के सामने आने के बाद मृणाल ठाकुर को सोशल मीडिया पर भारी आलोचना और ट्रोलिंग का सामना करना पड़ा, जिसके बाद उन्हें सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगनी पड़ी। लेकिन असली सवाल यह है कि आखिर कब तक समाज महिलाओं के शरीर, उनके नारीत्व और उनकी दिखावट पर निगरानी रखता रहेगा? क्यों किसी महिला की ताक़त, मांसपेशियों या उसके रूप को लेकर हमेशा सवाल खड़े किए जाते हैं?

समाज की उम्मीदों और अपनी पहचान के बीच जंग

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हमारे समाज में औरतें दोहरी जंग लड़ रही हैं। एक तरफ़ समाज और पितृसत्ता की उम्मीदें हैं और दूसरी तरफ़ उनकी अपनी असली पहचान और चुनाव। समाज औरत से उम्मीद करता है कि वह नाज़ुक, सुंदर और आज्ञाकारी हो। लेकिन इन बनावटी मानकों के बीच उसका असली ‘स्व’ कहीं खो जाता है। नतीजा यह होता है कि औरत खुद को वैसे स्वीकार ही नहीं कर पाती जैसी वह वास्तव में है।

शरीर और रूप-रंग पर ताने

समाज कभी उसके शरीर पर सवाल उठाता है कि“तुम बहुत पतली हो” और कभी “तुम मोटी लग रही हो।” उसके रंग-रूप और वजन को लेकर टिप्पणी करना आम बात है। अगर वह ढके हुए कपड़े पहने तो उसे तुरंत “संस्कारी” का टैग दे दिया जाता है और कहा जाता है कि वह मॉडर्न नहीं है। वहीं अगर वही औरत थोड़े खुले कपड़े पहने तो उसे “बेशर्म” कहकर जज किया जाता है।

करियर और जीवनशैली की दुविधा

औरत अगर घर पर रहकर नौकरी न करे तो उसे निकम्मी समझा जाता है। लेकिन अगर वही बाहर जाकर काम करती है तो समाज उसे “स्वार्थी” करार देता है। इस तरह हर स्थिति में उसके चुनाव पर सवाल खड़े किए जाते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य पर असर

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इन विरोधाभासी उम्मीदों और तानों का बोझ औरतों की मानसिक सेहत पर गहरा असर डालता है। वे लगातार सोचती रहती हैं कि “क्या मैं अच्छी दिख रही हूँ? मेरे कपड़े सही हैं? मेरा रंग ठीक है? मेरा वजन ज़्यादा तो नहीं हो गया?” इस तरह खुद पर लगातार सवाल उठाने की आदत उन्हें भीतर से कमजोर कर देती है।

ज़रूरत बदलाव की

यह समझना ज़रूरी है कि औरत की असली पहचान उसकी अपनी पसंद और उसके चुनावों में है, न कि समाज द्वारा बनाए गए नियमों में। जब तक समाज औरत को उसके असली रूप में स्वीकार नहीं करेगा तब तक यह मानसिक दबाव और असमानता बनी रहेगी। औरत को अपने असली ‘स्व’ को पहचानने और जीने का हक़ मिलना ही सबसे बड़ा बदलाव होगा।