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दहेज प्रथा, जिसे आज समाज में एक कुप्रथा के रूप में देखा जाता है कभी भारतीय समाज का एक सम्मानजनक हिस्सा हुआ करती थी। यह प्रथा महिलाओं के सशक्तिकरण और उनके भविष्य की सुरक्षा के लिए बनाई गई थी लेकिन समय के साथ इसका स्वरूप बदलता गया और यह महिलाओं के लिए बोझ बन गई।
Stories Of Strength: जानें दहेज प्रथा की असली शुरुआत और उसका बदलता स्वरूप
दहेज प्रथा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
प्राचीन भारत में दहेज का अर्थ आज से बिल्कुल अलग था। यह वर-पक्ष को दी जाने वाली कीमत नहीं बल्कि कन्या को उसके नए जीवन की शुरुआत के लिए आर्थिक सुरक्षा देने का एक माध्यम था। दहेज का चलन समाज के उच्च वर्गों में अधिक था जहां बेटियों को धन, गहने, ज़मीन और अन्य संपत्तियाँ देकर यह सुनिश्चित किया जाता था कि विवाह के बाद भी वे आत्मनिर्भर रहें और उनका भविष्य सुरक्षित हो। यह एक तरह से माता-पिता द्वारा अपनी बेटी को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने की परंपरा थी।
कैसे एक परंपरा बनी महिलाओं के लिए अभिशाप?
समय के साथ समाज में पितृसत्तात्मक सोच हावी होने लगी। आर्थिक असमानता बढ़ी और बेटियों को दहेज के रूप में दिए जाने वाले उपहारों को धीरे-धीरे वर-पक्ष की मांग के रूप में देखा जाने लगा। विवाह अब दो परिवारों के मिलन से अधिक एक लेन-देन की प्रक्रिया बन गया। वर-पक्ष अधिक धन और संपत्ति की मांग करने लगा और धीरे-धीरे यह अनिवार्य रस्म में बदल गया। कई मामलों में यदि दहेज पर्याप्त नहीं होता तो महिलाओं को शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ता।
दहेज प्रथा के घातक परिणाम
दहेज की बढ़ती मांग के कारण कई परिवार अपनी बेटियों की शादी के लिए कर्ज़ में डूब गए। वहीं, कई परिवारों ने बेटी को बोझ समझना शुरू कर दिया जिसके चलते कन्या भ्रूण हत्या और लड़कियों की शिक्षा से वंचित रखने जैसी गंभीर सामाजिक समस्याएँ सामने आईं। विवाह के बाद भी यदि महिला दहेज की मांग पूरी नहीं कर पाती तो उसे घरेलू हिंसा, ताने और कभी-कभी मौत तक झेलनी पड़ी। दहेज हत्या के मामले बढ़ने लगे और यह प्रथा सामाजिक बुराई का रूप ले चुकी थी।
कानूनी सुधार और सामाजिक बदलाव
दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए कई कानूनी प्रयास किए गए। 1961 में "दहेज प्रतिषेध अधिनियम" (Dowry Prohibition Act) पारित किया गया जिसके तहत दहेज लेना-देना कानूनी अपराध घोषित किया गया। इसके बाद घरेलू हिंसा कानूनों और महिला सुरक्षा अधिनियमों को भी सख्त किया गया। हालांकि, इन कानूनों के बावजूद समाज में दहेज प्रथा अभी भी कई रूपों में मौजूद है।
क्या समाधान हो सकता है?
दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिए सिर्फ कानूनी उपाय पर्याप्त नहीं हैं बल्कि समाज में मानसिकता बदलने की भी आवश्यकता है। माता-पिता को लड़कों और लड़कियों को समान अवसर देने चाहिए ताकि विवाह सिर्फ सामाजिक अनिवार्यता न बनकर एक आपसी समझ और सम्मान का रिश्ता बने। महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना इस समस्या के समाधान का सबसे महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।
शिक्षा, जागरूकता और महिलाओं के अधिकारों को लेकर संवेदनशीलता ही इस बुराई को जड़ से खत्म कर सकती है। जब समाज यह समझेगा कि विवाह कोई व्यापार नहीं बल्कि दो बराबर के इंसानों का आपसी संबंध है तभी दहेज प्रथा पूरी तरह खत्म हो सकेगी।