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Unique Marriage Tradition Of The Galo Tribe Of Arunachal Pradesh: जब भारत में दहेज प्रथा की बात होती है, तो आमतौर पर इसे एक सामाजिक बुराई के रूप में देखा जाता है, जिसमें दुल्हन के परिवार को शादी में भारी धनराशि, गहने और उपहार देने पड़ते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि अरुणाचल प्रदेश की गालो जनजाति में दहेज का पूरा सिस्टम ही उल्टा है? यहाँ ‘अरी’ या ‘ब्राइड प्राइस’ नाम की परंपरा के तहत दूल्हे को दुल्हन के परिवार को धन या उपहार देने होते हैं।
अरुणाचल की गालो जनजाति: जहां दूल्हा देता है दहेज, जानिए अनोखी परंपरा
क्या है ‘अरी’ परंपरा?
गालो जनजाति में ‘अरी’ (Ari) या ‘न्यिरपुंग’ (Nyirpung) एक अनूठी परंपरा है, जिसमें दूल्हे का परिवार दुल्हन के परिवार को शादी के बदले धन या कीमती उपहार देता है। यह परंपरा किसी लड़की को ‘खरीदने’ का तरीका नहीं है, बल्कि यह उसकी काबिलियत, मेहनत और परिवार के लिए उसके योगदान का सम्मान दर्शाने का एक जरिया है।
गालो जनजाति की विवाह परंपरा
गालो जनजाति में विवाह को ‘न्यिम लनाम’ (Nyim Lanam) या ‘न्यिब इनाम’ (Nyib Inam) कहा जाता है। इस परंपरा के अनुसार, शादी के बाद दुल्हन का परिवार एक महत्वपूर्ण सदस्य खो देता है, जो अब अपने नए घर में जाकर वहां की जिम्मेदारियां निभाएगी। इसे ‘आर्थिक क्षति’ के रूप में देखा जाता है, जिसे ‘अरी’ से संतुलित किया जाता है।
गालो जनजाति का मानना है कि यह परंपरा विवाह को सिर्फ एक पारिवारिक संबंध नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक संतुलन बनाने का तरीका भी है। यही कारण है कि यहां की महिलाओं को परिवार और समाज में समान रूप से मूल्यवान माना जाता है।
इस्लाम में ‘मेहर’ की समानता
गालो जनजाति की ‘अरी’ परंपरा से मिलती-जुलती एक और प्रथा इस्लाम में देखने को मिलती है, जिसे ‘मेहर’ (Mahr) कहा जाता है। इसमें दूल्हे को शादी के समय अपनी दुल्हन को एक निश्चित धनराशि या उपहार देना होता है। यह रकम सीधे दुल्हन की होती है, न कि उसके परिवार की।
मेहर न केवल एक कानूनी अधिकार है, बल्कि यह शादी में दुल्हन की सुरक्षा और सम्मान का प्रतीक भी है। ठीक उसी तरह जैसे गालो जनजाति की ‘अरी’ परंपरा, यह भी महिलाओं को आर्थिक स्वतंत्रता और विवाह में सम्मान देने की एक अनोखी प्रथा है।
समाज के लिए एक सीख
गालो जनजाति की यह अनूठी परंपरा हमें सिखाती है कि शादी में सिर्फ एक पक्ष पर बोझ डालना जरूरी नहीं है। विवाह को अगर बराबरी और सम्मान के नजरिए से देखा जाए, तो महिलाओं को ‘बोझ’ नहीं, बल्कि परिवार की शक्ति समझा जाएगा।
क्या भारतीय समाज इस परंपरा से कोई सीख ले सकता है?