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Stories Of Strength:भारत के इतिहास में सती प्रथा को बलिदान और धर्म से जोड़कर देखा गया लेकिन क्या यह सच में नारी शक्ति का प्रतीक थी या फिर यह केवल पितृसत्ता की एक क्रूर चाल थी? सदियों से महिलाओं को त्याग, बलिदान और समर्पण के दायरे में कैद किया गया और सती प्रथा इसका सबसे भयावह उदाहरण बनी। यह प्रथा औरतों के अस्तित्व को उनके पति से जोड़ती थी जिससे विधवाओं के लिए समाज में जीना मुश्किल कर दिया जाता था लेकिन क्या यह वास्तव में कोई सम्मानजनक परंपरा थी या फिर महिलाओं को उनकी स्वतंत्रता और अस्तित्व से वंचित करने का एक और तरीका?
Stories Of Strength: क्या सती प्रथा के पीछे असल में बलिदान की कहानी थी या सिर्फ पितृसत्ता का खेल?
ऐसा कहा जाता है कि सती प्रथा की शुरुआत उन महिलाओं से हुई जो अपने पति की मृत्यु के बाद स्वेच्छा से चिता में कूद गईं लेकिन सच तो यह है कि ज्यादातर मामलों में उन्हें मजबूर किया जाता था। जबरदस्ती, सामाजिक दबाव और धार्मिक भय ने इसे एक अनिवार्यता बना दिया। इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों का मानना है कि यह एक सुनियोजित प्रणाली थी ताकि विधवाओं की संपत्ति और अधिकार उनके पति के परिवार को मिल जाएं और वे समाज पर 'बोझ' न बनें।
पितृसत्ता का असली चेहरा
सती प्रथा केवल बलिदान नहीं थी यह महिलाओं पर नियंत्रण का एक तरीका थी। पुरुष-प्रधान समाज ने विधवाओं को जीवन का अधिकार नहीं दिया और उन्हें पति के बिना व्यर्थ मान लिया गया। आश्चर्य की बात यह है कि जो धर्म करुणा और दया की बातें करता है उसी के नाम पर महिलाओं को जिंदा जलाने की प्रथा को सदियों तक सही ठहराया गया। अगर यह सच में बलिदान होता तो पुरुषों को भी अपनी पत्नियों के साथ जलने के लिए कहा जाता लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ।
विद्रोह और बदलाव की शुरुआत
19वीं सदी में समाज सुधारकों ने इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ आवाज़ उठाई। राजा राम मोहन राय ने इसे खत्म करने की पुरजोर कोशिश की और 1829 में ब्रिटिश सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया। हालांकि, इस कानून के बावजूद कई जगहों पर यह जारी रही, जो दिखाता है कि पितृसत्ता महिलाओं पर अपनी पकड़ इतनी आसानी से नहीं छोड़ती।
आज की सती प्रथा: क्या यह खत्म हो चुकी है?
कानूनी रूप से सती प्रथा समाप्त हो गई है लेकिन क्या मानसिकता बदली? आज भी विधवाओं को कई जगह अछूत की तरह देखा जाता है उनसे मंगलसूत्र और रंगीन कपड़े छीन लिए जाते हैं और उन्हें समाज से काटकर तीर्थ आदि जगहों पर भेज दिया जाता है।
महिलाओं को कब मिलेगा असली सम्मान?
सती प्रथा भले ही बीते ज़माने की बात लगती हो लेकिन इसका सार आज भी जीवित है । महिलाओं की स्वतंत्रता को सीमित करना, उनके फैसलों पर सवाल उठाना और उनकी पहचान को किसी और से जोड़कर देखना। असली बलिदानी वो महिलाएँ थीं जिन्होंने इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई और असली नारी शक्ति वो है जो हर दिन समाज से लड़कर अपने अस्तित्व को साबित कर रही हैं।
अब सवाल यह है क्या हम सच में सती प्रथा से आगे बढ़ चुके हैं या यह किसी और रूप में आज भी हमारे समाज में मौजूद है?