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Photograph: (Homegrown)
सालूमरदा थिम्मक्का, जिन्हें कर्नाटक में 8,000 से ज़्यादा पेड़ लगाने और सँभालने के लिए “ट्री वुमन” कहा जाता था, उनका 14 नवंबर को 114 साल की उम्र में निधन हो गया। उन्हें 2019 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पद्मश्री से सम्मानित किया था। उनके जाने से एक बड़ी पर्यावरण प्रेमी आवाज़ अब नहीं रही, लेकिन उनकी यादें और काम आज भी ज़िंदा हैं, वे सड़कें जहाँ उनके लगाए बरगद के पेड़ खड़े हैं, वे पौधे जिन्हें उन्होंने बच्चों की तरह पाला, और कर्नाटक में उनके नाम पर बने ट्री पार्क और ये सब उनकी महान सेवा की कहानी बताते रहेंगे।
कर्नाटक की ‘पेड़ों की माँ’ का 114 वर्ष में निधन
अपनी आख़िरी संदेश में भी उन्होंने लोगों से यही कहा कि “पौधे लगाओ और उन्हें पेड़ बनने तक सँभालो।” थिम्मक्का अपने पीछे सिर्फ़ एक जंगल नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए एक जीवनभर का मिशन छोड़ गई हैं।
थिम्मक्का का शुरुआती जीवन
थिम्मक्का का जन्म कर्नाटक के तुमकुर ज़िले के गुब्बी तालुक में हुआ था। बचपन में वह एक सामान्य स्कूल जाने वाली बच्ची थीं, लेकिन परिवार की मजबूरी के कारण उन्हें पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी।
घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, और उन्हें स्कूल न भेजकर परिवार फीस बचाना चाहता था और खेती में दो और हाथ मिल जाते थे।
उन्हें यह नहीं पता था कि यही रास्ता उनकी बेटी को उसके असली मकसद तक ले जाएगा। खेतों और प्रकृति के बीच रहते-रहते थिम्मक्का को प्रकृति से गहरा लगाव हो गया। उन्हें पेड़ों से खास प्रेम हो गया और वह पूरी प्रकृति के लिए संवेदनशील बन गईं। सिर्फ बारह साल की उम्र में थिम्मक्का की शादी चिक्कैया से हो गई, जो रामनगर ज़िले के हुलीकल गाँव के रहने वाले थे।
थिम्मक्का ने पहला पेड़ कब लगाया?
आख़िर थिम्मक्का को पहला पेड़ लगाने की प्रेरणा कैसे मिली? एक दोपहर बेहद गर्मी थी। थिम्मक्का और उनके पति सड़क के किनारे चल रहे थे। उसी समय उन्होंने देखा कि धूप से बचाने वाला कोई पेड़ नहीं है। इसी बात ने उन्हें सोचने पर मजबूर किया। अगर यहाँ पेड़ हों, तो राहगीरों को कितनी राहत मिलेगी। यहीं से थिम्मक्का ने तय किया कि वह खुद पेड़ लगाएंगी और उन्हें बड़ा करेंगी।
पेड़ों की कमी के कारण वे सीधी दोपहर की तेज़ धूप में चल रहे थे। थिम्मक्का को वह रास्ता सूना, बंजर और बेजान लगा। इसी जगह थिम्मक्का और उनके पति ने अपने पहले बरगद और इमली के पौधे लगाए। यह साधारण-सा दिखने वाला काम असल में बहुत आगे की सोच था। दोनों ने अपने बीच ‘बराबर की ताकत, बराबर की ज़िम्मेदारी’ का नियम अपनाया था।
कैसे? चिक्कैया गड्ढे खोदते थे, और सालूमरदा पौधों के लिए पानी से भरे घड़े उठा कर लाती थीं। पौधारोपण के लिए इस्तेमाल होने वाले सारे बर्तन और साधन भी उन्होंने अपनी मेहनत की कमाई से खरीदे थे।
रास्ते में आई चुनौतियाँ
थिम्मक्का ने अपने जीवन में निजी और काम से जुड़ी कई मुश्किलों का सामना किया। 1991 में उन्होंने अपने पति को खो दिया - वही पति जो उनके पर्यावरण संरक्षण के काम में उनके सबसे बड़े साथी थे। पेशेवर स्तर पर भी कठिन समय आया। 2019 में बगेपल्ली-हलागुरु रोड को चौड़ा करने के लिए उनके लगाए 385 बरगद के पेड़ों को काटने का खतरा पैदा हो गया था। लेकिन थिम्मक्का ने डटकर विरोध किया और अपने पेड़ों को बचाने के लिए पूरी हिम्मत से खड़ी रहीं।
स्वास्थ्य के मोर्चे पर भी उन्होंने संघर्ष किया और हाल ही में उनकी हिप सर्जरी हुई थी, जो सफल रही।
थिम्मक्का, सालूमरदा कैसे बनीं?
थिम्मक्का ने हमेशा प्रकृति के लिए वह किया जो आम लोग सोच भी नहीं पाते। सिंचाई की सुविधा न होने पर वह बरसात का पानी इकट्ठा करतीं और पेड़ों को पिलातीl यह तो बस उनकी मेहनत की शुरुआत थी। उन्होंने अपने जीवन में 8,000 पेड़ लगाए और पाले। यह संख्या अपने आप में अद्भुत और गर्व करने लायक है।
इसी वजह से उन्हें “सालूमरदा” कहा जाने लगा, जिसका मतलब कर्नाटक में “पेड़ों की पंक्ति” होता है। तब से लोग उन्हें ऐसे देखते थे जैसे वो किसी चलते-फिरते पेड़ों की कतार की मानवीय रूप हों।
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