Bold Girls In Politics: हमारे समाज़ में यदि एक अच्छी महिला की परिभाषा पूछे तो लोग आपको कई बातें गिनवाएंगे जैसे एक औरत, जो शांत स्वभाव की हो, जिसका पहनावा ‘सभ्य’हो, जिसकी आवाज़ ‘धीमी’ और ‘नरम’ हो, नज़रें झुकी-झुकी हो और जो हर सवाल का जवाब सिर्फ ‘हां’ में दे। इस तरह की आदर्श महिलाओं का अपना कुछ नहीं होता। न कोई सपनें, ना इरादें, ना इच्छाएं और न ही कोई मंज़िल। उसे वही करना होगा जो उसके घर के पुरूष चाहेंगें। ऐसी आदर्श महिला की परिभाषा तैयार की एक मर्द ने। लेकिन, JNU जामिया और अब डीयू की लड़कियां भी ऐसी परिभाषाओं के विरूद्ध आवाज़ उठातीं हैं। शायद यही वज़ह है कि यह लड़कियां पितृसत्ता के पक्षधरों की आंखों को चुभतीं हैं। इसका परिणाम हम उन लड़कियों के करेक्टर खराब करने वाली, उन्हें बदतमीज़ और बद्किरदार साबित करने वाली खबरों में देखते हैं। ऐसी खबरें जिनकी कोई पुष्टि नहीं की जाती बस उन लड़कियों की इमेज़ खराब करने की मंशा से वायरल की जाती हैं।
क्या लड़कियों का राजनीति की समझ रखना और प्रोटेस्ट में भाग लेना, पितृसत्ता को अखड़ता है?
हमारे समाज़ के आधे से ज्यादा पुरूष यह समझते हैं की राजनीति महिलाओं की चीज़ नहीं है क्योंकि जिस तरह की विशेषताएं राजनीति के लिए ज़रूरी हैं वह किसी महिला में होना मुश्किल ही है। वो सोचते हैं की राजनीति में हिम्मत और निडरता चाहिए, लेकिन लड़कियां तो डरपोक, नाजुक और कमज़ोर होती हैं। राजनीति के लिए तेज़ दिमाग और चालाकी के साथ सही फैसला लेने की क्षमता चाहिए लेकिन लड़कियां तो बेवकूफ़ होती हैं। लड़कियां रट्टा मारने और अच्छी हैण्ड राइटिंग लिखने में तो माहिर होती हैं लेकिन तर्क-वितर्क या डिबेट करने के काबिल नहीं।
ऐसी सोच रखने वालें मर्दों के सामने जब इन संस्थानों की लड़कियां आकर उन्हें करारा जवाब देती हैं, राज़नीति पर अपने विचार साझा करती हैं तब ऐसे मर्द कितना तेज़ मुंह के बल गिरते हैं। इन संस्थानों की महिलाएं राजनीति में पुरुषों से कहीं ज्यादा आगे होती हैं जो कक्षाओं के भीतर और बाहर तर्क और वाद-विवाद में कहीं ज्यादा तेज़ और सक्षम रहती हैं। उन्मुक्त और आत्मविश्वास से भरी यह लड़कियां भीड़ से उठकर सत्ता में बैठें शासकों से सवाल करती हैं। अपने हक़ के लिए बोलती हैं, चिल्लाती हैं और लड़ जाती हैं हर उस शख्स से जो उसकी आज़ादी के पंख काट देना चाहते हैं।
कैसे रोकता है पितृसत्तात्मक समाज़
पितृसत्तात्मक समाज़ ने एक लंबें समय से औरतों को अपने विचार व्यक्त करने से रोक़ रखा हैं।वे बहुत अच्छी तरह से जानती हैं कि एक औरत होना क्या होता है और यह जानने के लिए मर्दों द्वारा बनाए गए इस समाज और इसके बंधनों को जड़ से उखाड़कर फेंका जाना कितना ज़रूरी है।
और यही वज़ह है कि इन संस्थानों की लड़कियां अक्सर ‘नारी मुक्ति जिंदाबाद’ और महिलाओं के साथ साथ मर्दों द्वारा सालों से सताए गए दूसरे लैंगिक अल्पसंख्यकों के लिए उस ‘आज़ादी’ का नारा लगाती हैं। इन्हीं महिलाओं ने अपने नारों से और बुलंद आवाज़ से महिलावादी आंदोलन को अभी तक जिंदा रखा है।