टॉक्सिक मेल बेहेवियर को सामान्य बनता सिनेमा
सिनेमा का समाज पर अच्छा और बुरा दोनो प्रभाव पड़ता है। हमारी फिल्मों में जिस तरह पुरुष किरदार और महिला किरदार को दिखाया जाता है वह खुद में बहस का एक विषय है। जिस तरह से हमारी फिल्में मेल टॉक्सिक बिहेवियर को सामान्य तौर पर उन्हें एक हीरो के रूप पेश करते है वो समाज को दूषित करने वाला है।
जिस पितृसत्तात्मक सोच और व्यवहार को हमें समाप्त करने की जरूरत है उन्हें हमारा सिनेमा बढ़ावा देता है। सिनेमा अपने पुरुष किरदार को 'एल्फा मेल' की भूमिका में दिखाते हुए महिलाओं की छवि की परवाह नही करता है और शायद ही यह विचार-विमर्श भी होता है कि यह सब समाज में ऐसे व्यवहार को बढ़ावा देता है।
पितृसत्तात्मक सोच से बने पुरुष किरदार
फिल्मों में हीरो का अर्थ है कि वो भरे - पूरे शरीर का हो और अपनी प्रेमिका को गुंडे से बचाने में सक्षम हो। उसके रहते उसकी प्रेमिका को ना तो कोई देख सकता है, ना ही गलती से छू भी सकता है। अगर फिल्म का 'एल्फा मेल' किरदार किसी लड़की को पसंद करने लगता है तो लड़की की हाँ या ना को उतनी तवज्जो नहीं दी जाती है।
उसके बाद लड़की का पीछा करना, उसके आगे पीछे हर जगह मौजूद रहना, हर वक्त उसको घूरते रहना, यह सब एक सामान्य रूप से दिखाया जाता है। ना सिर्फ इतना बल्कि यह भी दिखाया जाता है कि महिला किरदार को अगर ऐसे व्यवहार से दिक्कत भी होती है तब भी वह यह सब पसंद करती है और आखिर में आते-आते उसको भी प्यार होना लाज़मी हैं। क्योंकि 'एल्फा मेल' को अगर महिला किरदार के द्वारा 'ना' बोला जाना पितृसत्तात्मक सोच के पूर्ण रूप से खिलाफ हो जाएगा।
ऐसी फिल्मों का आघात भारी होती है
कहने को यह सब बहुत ही छोटे मुद्दे माने जा सकते हैं लेकिन इनका समाज पर गहरा असर पड़ता है। इनके द्वारा हम अपनी पीढ़ी को सिखा रहे हैं कि महिलाओं के साथ ऐसा करना बहुत सामान्य है और इसमें कुछ गलत नही है। यह एकदम गलत है। हमें अपनी पीढ़ी को 'कंसेट' पढ़ाना है।
उन्हें समझाना है कि महिलाओं के 'हाँ' या 'ना' जवाब को गंभीर रूप से लें और उसे अन्यथा समझने की गलती न करे। हमारी फिल्मों को पितृसत्तात्मक सोच और समाज पर चोट करनी चाहिए ना कि उनके लिए प्रचार का माध्यम बनना चाहिए।