हम सभी जानते है कि हमारा समाज एक पुरुष प्रधान समाज है। पुरुष प्रधानता को बनाए रखने के लिए पुरुष एक रक्षक और निर्णायक की भूमिका को अदा करते हैं और इस पुरुष प्रधानता को निभाने के लिए महिलाएँ पुरुष प्रधानता के सभी नियमों का पालन करती हैं। पुरुष अपने परिवार के लिए आजीविका कमाता हैं और उससे परिवार की सभी महिलाओं, बच्चों और परिवार सदस्यों इत्यादि का खान-पान से संबंधित सभी ज़िम्मेदारी को पूरा करते हैं।
यह सब भी पितृसत्ता का ही एक पड़ाव है जिसमे पुरुषों द्वारा बनाए गए नियम जैसे महिलाएं कमज़ोर होती है, पुरुषों पर आश्रित होती हैं, उनकी अपनी कोई पहचान नही होती इत्यादि को माना जाता रहा है। ऐसे नियम अभी तक समाज मे प्रचलित है जो महिलाओं की भूमिका या उनके अस्तित्व और पहचान को खत्म करते हैं।
गुम होती वो और उसकी पहचान
एक लड़की पहले अपने पापा के नाम से जानी जाती है और शादी के बाद अपने हस्बैंड के नाम से आखिर कब वह समय आएगा जब उसकी खुद की पहचान होगी सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात तो यह है कि यह इतने लंबे दो से चलता आ रहा है कि अब महिला अपनी पहचान के बारे में सोचती तक नहीं है वह दूसरों का ख्याल रखने में इतनी मशरूफ है कि उसे अपने वजूद तक का ख्याल नहीं है।
कोई अच्छा काम करने पर भी उनके काम को सराहा नही जाता बल्कि कहा जाता है कि सारा दिन घर पर रह कर तुमने क्या किया? पितृसत्ता के चलते अभी तक औरतों को बराबरी का दर्जा नही मिल रहा है समाज मे, अभी तक पुरुषों को ही इस भूमिका में देखा जा रहा है।
महिला सशक्तिकरण के नाम पर गांवों की असल झलक
गाँव मे जहाँ पर एक महिला सरपंच तो देखी जाती है मगर मीटिंग के दौरान उनके पति ही सरपंची का सभी काम देखते है। उनका कहना था कि उनकी पत्नी आज सरपंच उनकी वजह से है क्योंकि उनकी पत्नी को इस गाँव मे कोई नही जानता है और उनकी पहचान और उनकी गाँव की भलाई के कार्यों के वजह से ही उन्हें सरपंच बनाया गया है।
अभी भी महिलाओं को वो सम्मान नही मिल रहा है जिसकी वह हक़दार है। वो किसी भी मुकाम को हासिल करें परन्तु अभी भी असल मे वो उस मुकाम का क्रेडिट खुद नहीं दे पाती क्योंकि उनकी खुद की तो कोई पहचान ही नहीं है।