क्यों आज भी घर हो या ऑफिस, महिलाओं को ‘ना’ कहने पर गिल्ट महसूस होता है?

'गिल्ट' (guilt) शब्द को आप ‘महिला’ होने का पर्यायवाची भी मान सकते हैं, क्योंकि बचपन से ही महिलाओं को सिखाया जाता है कि अगर उन्होंने अपने लिए कुछ किया या किसी की बात को मना किया, तो उन्हें दोषी महसूस करना चाहिए। 

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Rajveer Kaur
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Photograph: (Image Credit: Pinterest)

Guilt around saying no at home or work: 'गिल्ट' (guilt) शब्द को आप ‘महिला’ होने का पर्यायवाची भी मान सकते हैं, क्योंकि बचपन से ही महिलाओं को सिखाया जाता है कि अगर उन्होंने अपने लिए कुछ किया या किसी की बात को मना किया, तो उन्हें दोषी महसूस करना चाहिए। आज भी बहुत-सी महिलाओं को ‘ना’ कहने में मुश्किल होती है। उन्हें लगता है कि शायद वे किसी के साथ कुछ गलत कर रही हैं या बहुत स्वार्थी बन रही हैं। इसका नतीजा यह होता है कि उनके ऊपर वर्कलोड बढ़ जाता है और उन्हें खुद के लिए समय ही नहीं मिल पाता।इस लेख में हम इसी ‘ना’ न कह पाने की वजह को समझने की कोशिश करेंगे।

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क्यों आज भी घर हो या ऑफिस, महिलाओं को ‘ना’ कहने पर गिल्ट महसूस होता है?

महिलाओं की 'सोशल कंडीशनिंग' इस तरह होती है कि छोटी उम्र से ही उन्हें सिखाया जाता है कि कैसे त्याग करना है और खुद को हमेशा दूसरों के पीछे रखना है। उन्हें हमेशा दूसरों की मदद करने की सीख दी जाती है, चाहे वे उस मदद के लिए सक्षम हों या नहीं। जो महिलाएं खुद को भूलकर दूसरों के लिए जीती हैं, उन्हें “अच्छी महिला” कहा जाता है, समाज में उन्हें सम्मान मिलता है और उन पर कभी ‘सेल्फिश’ होने का आरोप नहीं लगता।

घरों में महिलाओं को एक केयरटेकर के रूप में देखा जाता है। और जब बात दफ्तर या काम की होती है, तो वहां भी स्थिति बहुत अलग नहीं होती।

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ऑफिस में भी महिलाओं को ‘ना’ कहने पर गिल्ट महसूस होता है, क्योंकि उन्हें डर होता है कि अगर उन्होंने मना कर दिया तो उन्हें “कामचोर”, “कमजोर”, या “ambitious” के नाम पर टैग कर दिया जाएगा। उन्हें कहा जाता है कि वो एडजस्ट नहीं कर सकतीं, उनमें लचीलापन नहीं है, या फिर वे इस माहौल के लायक नहीं हैं। इस डर से महिलाएं न तो घर में और न ही ऑफिस में ‘ना’ कहने की हिम्मत जुटा पाती हैं।

लेकिन ऐसा होता kyon है?

जब आप ‘ना’ नहीं कहते, तो आपके ऊपर काम का बोझ इतना बढ़ जाता है कि आप अपनी मानसिक और शारीरिक सेहत को नज़रअंदाज़ करने लगते हैं। आप वे काम भी करने लगते हैं जो आपकी इच्छा के विरुद्ध होते हैं। आप अपनी ही आवाज़ को दबाने लगते हैं और धीरे-धीरे यह भूल जाते हैं कि आपकी ज़रूरतें क्या हैं। आप रेस्ट नहीं करते, खुद को समय नहीं देते, और उन चीज़ों को भी स्वीकार करना शुरू कर देते हैं जो आपके लिए ठीक नहीं हैं।

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इसलिए ‘ना’ कहना कोई बुरा व्यवहार नहीं है, बल्कि यह अपने लिए एक कदम है, एक बाउंड्री सेट करना है। आप छोटे-छोटे फैसलों से ‘ना’ कहना शुरू कर सकते हैं जैसे किसी का छोटा-सा काम मना करना, अपनी प्राथमिकता को पहले रखना, या अपनी मर्जी से कोई निर्णय लेना।महिलाओं को यह समझना चाहिए कि उनकी “वैल्यू” इस बात में नहीं छुपी कि वे दूसरों को कितना मानती हैं, बल्कि इस बात में है कि वे अपनी सुनती हैं या नहीं।

जब आप अपने अनुसार, अपनी योग्यता और अपनी भावनाओं के अनुसार निर्णय लेते हैं — तभी आप सच्चे अर्थों में खुद की इज्ज़त करते हैं। और जो अपनी इज्ज़त करता है, वही दूसरों की इज्ज़त भी करना जानता है।